Friday, 17 March 2017

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Tuesday, 7 March 2017

अनभिज्ञ / आशीष जोग

गगन के रक्ताभ रंग में,
डूबते सूरज की किरणें,
पूछती हैं आज मुझसे -

जान पाए क्या कभी तुम,
फर्क है क्या
भोर और संध्या की धुंधली लालिमा में?

और मैं,
अनभिज्ञ, निश्चल, मूक, कातर,
दूर नभ में डूबते,
सूरज की किरणों से,
निकलते प्रश्न चिन्हों की दिशा में,
देखता हूँ, खोजता
अजना अजाना एक उत्तर!

क्षितिज के गहेरे धुंधलके
थम लेते हाथ मेरा,
और ले चलते मुझे,
उस पार अपने!

अनब्याही औरतें / अनामिका

"माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की, माई री!"
जब भी सुनती हूँ मैं गीत, आपका मीरा बाई,
सोच में पड़ जाती हूँ, वो क्या था
जो माँ से भी आपको कहते नहीं बनता था,

हालांकि संबोधन गीतों का
अकसर वह होती थीं!

वर्किंग विमेन्स हॉस्टल में पिछवाड़े का ढाबा!
दस बरस का छोटू प्यालियाँ धोता-चमकाता
क्या सोचकर अपने उस खटारा टेप पर
बार-बार ये ही वाला गीत आपका बजाता है!

लक्षण तो हैं उसमें
क्या वह भी मनमोहन पुरुष बनेगा,
किसी नन्ही-सी मीरा का मनचीता.
अड़ियल नहीं, ज़रा मीठा!

वर्किंग विमेन्स हॉस्टल की हम सब औरतें
ढूँढती ही रह गईं कोई ऐसा
जिन्हें देख मन में जगे प्रेम का हौसला!

लोग मिले - पर कैसे-कैसे -
ज्ञानी नहीं, पंडिताऊ,
वफ़ादार नहीं, दुमहिलाऊ,
साहसी नहीं, केवल झगड़ालू,
दृढ़ प्रतिज्ञ कहाँ, सिर्फ जिद्दी,
प्रभावी नहीं, सिर्फ हावी,
दोस्त नहीं, मालिक,
सामजिक नहीं, सिर्फ एकांत भीरु
धार्मिक नहीं, केवल कट्टर


कटकटाकर हरदम पड़ते रहे वे
अपने प्रतिपक्षियों पर -
प्रतिपक्षी जो आखिर पक्षी ही थे,
उनसे ही थे.
उनके नुचे हुए पंख
और चोंच घायल!

ऐसों से क्या खाकर हम करते हैं प्यार!
सो अपनी वरमाला
अपनी ही चोटी में गूंथी
और कहा खुद से -
"एकोहऽम बहुस्याम"

वो देखो वो -
प्याले धोता नन्हा घनश्याम!
आत्मा की कोख भी एक होती है, है न!
तो धारण करते हैं
इस नयी सृष्टि की हम कल्पना

जहाँ ज्ञान संज्ञान भी हुआ करे,
साहस सद्भावना!

अनपहचाना घाट / श्रीकांत वर्मा

धूप से लिपटे हुए धुएँ सरीखे
केश, सब लहरा रहे हैं
प्राण तेरे स्कंध पर !!

यह नदी, यह घाट, यह चढ़ती दुपहरी
सब तुझे पहचानते हैं ।

सुबह से ही घाट तुझको जोहता है,
नदी तक को पूछती है,
दोपहर,
उन पर झुंझकुरों से उठ तुझे गोहारती है ।

यह पवन, यह धूप, यह वीरान पथ
सब तुझे पहचानते हैं ।

और मैं कितनी शती से यहाँ तुझको जोहता हूँ ।
आह !

तूने नहीं पहचाना मुझे ।
इन्हीं पत्तों में दबी है बाँसुरी मेरी कहीं ।
इसी नदिया तीर मेरे गान
डूबे हैं कहीं ।
प्राण! तूने नहीं पहचाना मुझे ।
मैं तुझे जोहा किया,
रोया किया,
गाया किया,
किसी मुट्ठी में युगों से बन्द बादल-सा विकल हूँ हर घड़ी ।
प्राण मैं हूँ बवंडर,
जो कहीं पथरा गया ।
आह! मैं कितनी शती से, यहाँ
तुझको जोहता हूँ,
किन्तु तूने नहीं पहचाना मुझे ।
इन्हीं पत्तों में दबी है बाँसुरी मेरी कहीं ।

किसी टहनी पर कहीं यदि डबडबाए फूल
अधरों को छुला दे,
बाँसुरी मेरी
उठाकर, किन्हीं लहरों में सिरा दे ।
मुझे गा दे....मुझे गा दे !!

घाट हूँ मैं भी मगर
मुझको नदी छूती नहीं है !!

सुबह से ही प्राण ! तुझको मैं जोहता हूँ
पूछता हूँ,
झुंझकुरों से उठ तुझे गोहारता हूँ ।

आह! मेरी सब पुकारें, मेघ बनकर भटकती हैं !
किन्तु तूने
नहीं पहिचाना मुझे !!

धूप से लिपटे हुए धुएँ सरीखे
केश सब लहरा रहै हैं
प्राण तेरे स्कंध पर !
इन्हीं पत्तों में दबी है बाँसुरी मेरी कहीं !!

अनन्त में मौन / राजा खुगशाल

स्व० शमशेर जी के प्रति सादर

कुछ दूर गए शमशेर
और फिर रुक गए
जैसे कह रहे हों --
मुझे एक कहकशाँ कहना है
इस रात के साए से

जैसे कह रहे हों --
कहाँ सीढ़ियाँ उतरने की
ज़हमत उठाए चाँद
मैं अकेला पार कर लूँगा पर्वत

परत-दर-परत
कितना ठोस, कितना स्वच्छ
कितना चमकदार है आसमान
'आसमान में गंगा की रेत
आइने की तरह चमक रही है ।'

क़दम-दर-क़दम
फिर मुखरित है अनन्त में मौन ।

अनन्य राग / पुष्पिता

विदेश में
सूरीनाम के भारतवंशियों बीच
ढो लाई हूँ भारत देश
अपनी मन-देह में
देश का मातृत्व प्रेम
देह-माटी में है गंगा माटी

स्मृतियों की अँजुली में है
स्वदेशी बादल
समाहित है मेघदूत
मेघदूत में
कभी कालिदास
कभी नागार्जुन कवि

सूर्य के ज्योति-कलश में है
रघुवंश का तेज-पुंज
सूरीनाम के भारतवंशियों की भक्ति में
स्मरण आते हैं कुमार गन्धर्व
                   जसराज
                   भीमसेन जोशी
कृष्ण की भक्ति में
पहुँचता है चित्त वृन्दावन
राम की भक्ति में चित्रकूट
शिव-शंकर के उपासकों बीच
ह्रदय पहुँचता है काशी तीरे और उज्जैन

सूरीनाम में
बसे हुए भारत में
बसाती हूँ मैं स्मृतियों का भारत
यहाँ के पुरखों में
आत्मा लखती है अपने पुरखे।

अनपढ़ / उमेश चौहान

उसके अनपढ़ होने में
कोई कसूर नहीं था उसका
यह उन लोगों के गुनाहों का सबूत भर था
जो पढ़े-लिखे होकर भी
इस बात के गवाह बने हैं कि

वह अनपढ़ है
भले ही वे इसके पक्षधर हों या न हों।
वह अनपढ़ इसलिए थी
क्योंकि उसके माँ-बाप अनपढ़ थे
क्योंकि उसके गाँव में कोई स्कूल नहीं था
या फिर इसलिए भी कि
कोई पढ़ाने वाला न होने के कारण
बंद पड़ा था

उसके पड़ोसी गाँव का स्कूल भी
या शायद इसलिए कि
माँ-बाप के पास नहीं थी
उसके लिए बचपन में
कॉपी-किताबें खरीदने की ताकत भी।
उसके लकड़ियाँ बीनकर लाने पर ही
घर का चूल्हा जलता था
बीमार माँ के पास बैठकर
उसके चकिया पीसने पर ही
घर में रोटी का जुगाड़ होता था
घर के झाड़ू-बरतन से लेकर

गाँव के दूसरे छोर वाले कुएँ से
पानी लाने तक का सारा जिम्मा भी
उसी के सिर था
उसकी दिनचर्या में
पढ़ना भी शामिल हो
इसकी जरूरत तक
कभी महसूस नहीं की थी उसने
न ही किसी और ने कभी में थी इसका
कोई अहसास भी दिलाया था उसको
औरों की तो मौज ही इसी में थी कि
वह अनपढ़ ही बनी रहे सदा
उनकी सेवा-टहल के लिए सदैव सुलभ।
गाँव से शहर तो चली आई है वह
पति के पीछे-पीछे
पर अनपढ़ बने रहना
परिवार का पेट पालने की खातिर
सस्ते में चाकरी करना
नियति का खेल ही मान रखा है उसने
उसका पति भी नहीं चाहता कि
वह पढ़-लिखकर होशियार बन जाय
और करने लगे प्रश्न पर प्रश्न
उसकी मनमानी भरी बातों पर नित्य।

लेकिन अचानक ही अब
कचोटने लगा है उसको
अपना अनपढ़ होना
जब से लगाने पड़ रहे हैं उसे
थाने व कचेहरी के चक्कर
क्योंकि एक झूठे मामले में
दिल्ली की बेलगाम पुलिस ने
जेल भेज दिया है उसके पति को
कई गैर-जमानती आरोप लगाकर।

पति के केस के वे कागजात
जिन्हें पढ़वाने के लिए
नित्य तमाम तरह की जलालत झेलती है वह
और लगाती रहती है मौन
वकीलों और पुलिस वालों के चक्कर
उन्हें खुद न पढ़ पाने की पीड़ा
पसरी रहती है हमेशा उसके चेहरे पर
जैसी स्थायी रूप से समाई रहती है मलिनता
शहर की अनधिकृत झोपड़पट्टियों में।

बेबस निगाहों से कागजों को पलटती
जब भी मिलती है वह पति से
तिहाड़ जेल की सलाखों के बाहर से
उसे यही लगता है कि
यदि वह स्वयं पढ़ पाती उन कागजों को
तो शायद शीघ्र ही
वापस ले जा सकती थी अपने पति को
उन सलाखों के पीछे से निकालकर
स्वयं अपने ही बलबूते।

निराशा के भँवर में डूबती-उतराती
अंततोगत्वा पढ़ना सीख रही है वह आजकल
काले अक्षरों के बीच उजास तलाशती
अपनी निःस्वप्न आँखों में
अनपढ़ होने का सारा दर्द समेटे।