- अनभिज्ञ / आशीष जोग
- अनब्याही औरतें / अनामिका
- अनपहचाना घाट / श्रीकांत वर्मा
- अनन्त में मौन / राजा खुगशाल
- अनन्य राग / पुष्पिता
- अनपढ़ / उमेश चौहान
- अनन्त काल तक / पद्मजा शर्मा
- अनन्त / सुदर्शन प्रियदर्शिनी
- अधिकार हमारा है / रघुवीर सहाय
- अनदेखा / दिनेश कुमार शुक्ल
- अनजाने ही / उमा अर्पिता
- अधिनायक / रघुवीर सहाय
- अधिकारी छाए थे / त्रिलोचन
- अधिकार का प्रश्न / शशि सहगल
- अधिकार / सीत मिश्रा
- अधिकार / विजय कुमार विद्रोही
- अदृश्य होने से पहले / उदयन वाजपेयी
- अद्भुत कला / अमरजीत कौंके
- अधगले पंजरों पर / अभिमन्यु अनत
- अदृश्य परदे के पीछे से / अरुणा राय
- अदृश्य रंगरेज के प्रति / विमल राजस्थानी
- अदृश्य होते हुए / दिविक रमेश
- अनंग पुष्प / पुष्पिता
- अनंत / सुदर्शन प्रियदर्शिनी
- अनायास ही / कुमार सुरेश
- अनायास / अजित कुमार
- अनायास / अनुज लुगुन
- अनाम ‘वह’ के लिए / पुष्पिता
- अनाथ गौरैया / असंगघोष
- अनाम चिड़िया के नाम / एकांत श्रीवास्तव
- अनाम / हरीशचन्द्र पाण्डे
- अनाथ-सी आवाज़ / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
- अधूरी पैरोड़ी / मुकेश मानस
- अधूरी रहेगी / महेश चंद्र पुनेठा
- अदृश्य इमारत / राग तेलंग
- अदृश्य / भारत भूषण अग्रवाल
- अनहद के स्वर / विमल राजस्थानी
- अधूरी चीज़ें तमाम. / प्रयाग शुक्ल
- अनसुलझा प्रश्न / उमा अर्पिता
- अनसुना सुनने को मैं / संजय अलंग
- अनसुने अध्यक्ष हम / किशन सरोज
- अधूरी कविता / अर्पण कुमार
- अधूरी कविता / वर्तिका नन्दा
- अधूरी कविता / संजय कुंदन
- अधूरी कविताओं में कवि / मुकेश मानस
- अदालत में औरत / कुमार सुरेश
- अथ से इति तक / विद्याभूषण
- अथाह जीवन / त्रिलोचन
- अदब से / विजय गुप्त
- अदम्य / प्रतिभा सक्सेना
- अदाकार / शर्मिष्ठा पाण्डेय
- अदालत / अवतार एनगिल
- अधूरापन / केशव
- अधूरापन / अपर्णा अनेकवर्णा
- अत्याचारी / ब्रजेश कृष्ण
- अत्याचारियों के स्मारकों पर धर्म-लेख / संजय चतुर्वेदी
- अधूरा है: सुन्दर है/ बलदेव वंशी
- अनमेल मेल / अमरेन्द्र
- अनमिट परछाईं / पुष्पिता
- अधूरा प्यार / विमल कुमार
- अधूरा घोंसला / क्रांति
- अनमना रोमांस / भूपिन्दर बराड़
- अनभिज्ञ चिड़िया / भावना कुँअर
- अधीर / मुकुटधर पांडेय
- अतृप्ति / चन्द्रकुंवर बर्त्वाल
- अतुल्य प्रेम / शिव कुमार झा 'टिल्लू'
- अजीब आदमी हो जी! / केदारनाथ अग्रवाल
- अजीब अन्धेरा / जय गोस्वामी
- अजीब / रंजना जायसवाल
- अजित के जन्म-दिन पर / हरिवंशराय बच्चन
- अजाना व्यक्तित्व / उमा अर्पिता
- अच्छा है कि मैं अकेली नहीं / इला कुमार
- अच्छा ही है / उमा अर्पिता
- अच्छा लगा / कुंवर नारायण
- अच्छा लगता है / केदारनाथ अग्रवाल
- अच्छा लगता है / पद्मजा शर्मा
- अच्छा लगता है / पवन कुमार मिश्र
- अच्छा लगता है / विमल राजस्थानी
- अतीत की चुभन / धूप के गुनगुने अहसास / उमा अर्पिता
- अठारहवीं किरण / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
- अटल / माखनलाल चतुर्वेदी
- अटल है खण्डहर / मदन गोपाल लढ़ा
- अज्ञात क्राँतिवीर का शिलालेख / बर्तोल ब्रेख्त
- अजेय ही अड़े रहो / केदारनाथ अग्रवाल
- अजेय लेखनी / बर्तोल ब्रेख्त
- अजेय की माँ बीमार है / रति सक्सेना
- अजूबा / प्रमोद कुमार शर्मा
- अतिरिक्त समझकर क्या होगा / रश्मि प्रभा
- अतिरिक्त ज़िम्मेदारी / लीलाधर जगूड़ी
- अतिरिक्त / राग तेलंग
- अतिरंजन की भूमिका / नीरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती
- अतिम पैगम्बर / सुमित्रानंदन पंत
- अच्छे दिन / एकांत श्रीवास्तव
- अच्छी हो सुबह तुम / नरेश अग्रवाल
- अच्छी बुद्धि / दिविक रमेश
- अच्छी पत्नी / पल्लवी मिश्रा
- अच्छी किताब / देवमणि पांडेय
- अच्छी खबर / दिनेश कुमार शुक्ल
- अच्छी कविताओं का हश्र / मनोज श्रीवास्तव
- अच्छी कविता की ज़रूरत / नील कमल
- अच्छी कविता की गुंजाइश / प्रियदर्शन
- अजीव का पहरा / पारुल पुखराज
- अतीत / समझदार किसिम के लोग / लालित्य ललित
- अच्छे दिनों में क्या सब कुछ अच्छा होगा / कृष्ण कल्पित
- अच्छे दिन आने वाले हैं / अंजू शर्मा
- अच्छे दिन आने वाले हैं / पवन करण
- अछूत / प्रेमशंकर
- अट नहीं रही है / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
- अच्छे भाग वाला मैं / सुरेश सेन निशांत
- अच्छे लोग / मुकेश मानस
- अतीत के छींटे / सुदर्शन प्रियदर्शिनी
- अतीत की पुकार / अज्ञेय
- अतीत की चुभन / उमा अर्पिता
- अतीत का आईना / भरत ओला
- अटखेलियाँ / निदा नवाज़
- अटका बादल / अनीता कपूर
- अटक गया विचार / बृजेश नीरज
- अतीत के साथ / मनोज श्रीवास्तव
- अतुकांत चंद्रकांत / रघुवीर सहाय
- अट्ठारह की उम्र / सुकान्त भट्टाचार्य
- अजनबी शहर से दोस्ती / ब्रजेश कृष्ण
- अजनबी मनुष्य / अमरजीत कौंके
- अजनबी बनता पहचान / मोहन राणा
- अजनबी आवाज़ें / सुभाष राय
- अचानक हुआ भाग्योदय / नागार्जुन
- अचानक मुलाक़ात / विस्साव शिम्बोर्स्का
- अचानक देवत्व / सुधीर सक्सेना
- अचानक तुम आ जाओ / आलोक धन्वा
- अचानक छाए बादलों की परछाईं की तरह / ओसिप मंदेलश्ताम
- अचानक एक मोड़ पर / विजय कुमार सप्पत्ति
- अजनबी / मुइसेर येनिया
- अजनबी / मनोज कुमार झा
- अजनबी / प्रांजल धर
- अजनबी / पृथ्वी पाल रैणा
- अजनबी / दीप्ति नवल
- अजनबियों के गीत / कात्यायनी
- अजगर / समीर बरन नन्दी
- अछूते फूल / हरिऔध
- अछूत-दान / मुकेश मानस
- अगली सुबह तक / शलभ श्रीराम सिंह
- अगली दावत की प्रतीक्षा में / नोमान शौक़
- अक्सर / अशोक तिवारी
- अक्सर / डी. एम. मिश्र
- अग्नि परीक्षा / हरिवंशराय बच्चन
- अग्नि रेखा खींचो / अम्बिका दत्त
- अग्नि का सौन्दर्य / विमल राजस्थानी
- अग्नि कुण्ड / निदा नवाज़
- अग्नि धर्म है शुचिता का, सुन्दरता का / कात्यायनी
- अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ! / हरिवंशराय बच्चन
- अगवानी / नवनीत पाण्डे
- अगले वर्ष / नित्यानंद गायेन
- अकेली न जैयो राधे जमुना के तीर / अज्ञेय
- अकेली स्त्री का दुख / नील कमल
- अक्सर सोचता हूँ / कर्णसिंह चौहान
- अगले ढाई साल / असद ज़ैदी
- अगली बार / प्रतिभा सक्सेना
- अक्षरों का संगीत लेकर / सरस्वती माथुर
- अगरबत्ती / इला प्रसाद
- अगला मंगलवार / रविकान्त
- अक्स / कुमार सुरेश
- अकेली कहॉं वह / संगीता गुप्ता
- अकेली औरत का हँसना / सुधा अरोड़ा
- अकेली औरत का रोना / सुधा अरोड़ा
- अकेली औरत / रघुवीर सहाय
- अकेली औरत / पूजा खिल्लन
- अकेली और अकेली / अज्ञेय
- अकेलापन / रोज़ा आउसलेण्डर
- अकेलापन / रेखा राजवंशी
- अचानक / नीलेश रघुवंशी
- अचानक / दुष्यन्त
- अचानक / अनिल त्रिपाठी
- अगर मैं जीना चाहता हूँ / एरिष फ़्रीड / प्रतिभा उपाध्याय
- अगर सचमुच यह औरत / अक्षय उपाध्याय
- अगर-मगर / अरुण देव
- अगर हो सकते हमको ज्ञात / सुमित्रानंदन पंत
- अगर हाथी एक जीव है और मच्छर भी / हेमन्त शेष
- अगर हम / रामकुमार कृषक
- अगर साक़ी तेरा पागल / सुमित्रानंदन पंत
- अकेलेपन का बल पहचान / हरिवंशराय बच्चन
- अकेलेपन का आनन्द / डी० एच० लारेंस
- अकेलेपन / नरेन्द्र शर्मा
- अकेले हैं... / उमा अर्पिता
- अकेले ही नहीं / कृष्णमोहन झा
- अकेले से लगे तुम / जेन्नी शबनम
- अकेले पेड़ों का तूफ़ान / विजयदेव नारायण साही
- अकेले तुम / अजित कुमार
- अकेले क्यों / अशोक वाजपेयी
- अंधेरे और रोशनी के थरथराते पु़ल पर / नीलोत्पल
- अकुलाहट / ‘मिशल’ सुल्तानपुरी
- अकीका / अशोक कुमार पाण्डेय
- अंतिम बरस / नीलेश रघुवंशी
- अंतिम प्रणाम लो हे अनंत पथ के यात्री! / गुलाब खंडेलवाल
- अंतिम पुष्प / मुकुटधर पांडेय
- अंतिम निर्णायक / पद्मजा शर्मा
- अंधेरे पाख का चांद / केदारनाथ सिंह
- अंधेरे की ओट से / नीलोत्पल
- अंधेरे का तर्क / प्रताप सहगल
- अंधेरे का अर्थ / प्रताप सहगल
- अंधेरी रात में दूधिया बारिश / वेणु गोपाल
- अंधेरी दौड़ में / लक्ष्मीकान्त मुकुल
- अकेलापन / रामकृष्ण पांडेय
- अकेलापन / नवनीत नीरव
- अकेलापन / ऋतु पल्लवी
- अकेलापन / इवान बूनिन
- अकेला मानव आज खड़ा है / हरिवंशराय बच्चन
- अकेला बैठा हूं यहा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
- अकेला बैठा में विश्व के गवाक्ष में / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
- अकेला कमरा / मनीषा पांडेय
- अकेला पहाड़ / केदारनाथ अग्रवाल
- अकेला आदमी / विमलेश त्रिपाठी
- अकेला आदमी / नरेश अग्रवाल
- अकेला / मुकुटधर पांडेय
- अकेला / मनोज कुमार झा
- अंधेरे से लड़ाई / प्रताप सहगल
- अंधेरों के दरख़्त / रति सक्सेना
- अंधेरों के नाम / सुदर्शन प्रियदर्शिनी
- अंबर का छाया मेघालय / केदारनाथ अग्रवाल
- अंबर फिर फिर क्या करता स्थिर / सुमित्रानंदन पंत
- अंर्त्तनाद / संजय अलंग
- अंतर्गमन / सुमित्रानंदन पंत
- अंतरिक्ष / ज्यून तकामी
- अंतरिक्ष में अभी सो रही है / जयशंकर प्रसाद
- अंतरिक्ष में विस्फोट / पंखुरी सिन्हा
- अंतरिक्ष / अनूप सेठी
- अंतराल / वाज़दा ख़ान
- अंतराल / आलोक श्रीवास्तव-२
- अंतरद्वंद्व / अटल बिहारी वाजपेयी
- अंतरंग साँस / पुष्पिता
- अंतरंग चेहरा / अज्ञेय
कविताओं का विशाल संग्रह
Popular Hindi Poetry Kavitaen लोकप्रिय एवं नव रचनारों की हिंदी कविताए
Friday, 17 March 2017
हिंदी कविता हिन्दी कविताएँ / Hindi Poem /Poetry Hindi Kavita, Kavitaen
Labels:
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हिन्दी कविताएँ
Tuesday, 7 March 2017
अनभिज्ञ / आशीष जोग
गगन के रक्ताभ रंग में,
डूबते सूरज की किरणें,
पूछती हैं आज मुझसे -
जान पाए क्या कभी तुम,
फर्क है क्या
भोर और संध्या की धुंधली लालिमा में?
और मैं,
अनभिज्ञ, निश्चल, मूक, कातर,
दूर नभ में डूबते,
सूरज की किरणों से,
निकलते प्रश्न चिन्हों की दिशा में,
देखता हूँ, खोजता
अजना अजाना एक उत्तर!
क्षितिज के गहेरे धुंधलके
थम लेते हाथ मेरा,
और ले चलते मुझे,
उस पार अपने!
डूबते सूरज की किरणें,
पूछती हैं आज मुझसे -
जान पाए क्या कभी तुम,
फर्क है क्या
भोर और संध्या की धुंधली लालिमा में?
और मैं,
अनभिज्ञ, निश्चल, मूक, कातर,
दूर नभ में डूबते,
सूरज की किरणों से,
निकलते प्रश्न चिन्हों की दिशा में,
देखता हूँ, खोजता
अजना अजाना एक उत्तर!
क्षितिज के गहेरे धुंधलके
थम लेते हाथ मेरा,
और ले चलते मुझे,
उस पार अपने!
अनब्याही औरतें / अनामिका
"माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की, माई री!"
जब भी सुनती हूँ मैं गीत, आपका मीरा बाई,
सोच में पड़ जाती हूँ, वो क्या था
जो माँ से भी आपको कहते नहीं बनता था,
हालांकि संबोधन गीतों का
अकसर वह होती थीं!
वर्किंग विमेन्स हॉस्टल में पिछवाड़े का ढाबा!
दस बरस का छोटू प्यालियाँ धोता-चमकाता
क्या सोचकर अपने उस खटारा टेप पर
बार-बार ये ही वाला गीत आपका बजाता है!
लक्षण तो हैं उसमें
क्या वह भी मनमोहन पुरुष बनेगा,
किसी नन्ही-सी मीरा का मनचीता.
अड़ियल नहीं, ज़रा मीठा!
वर्किंग विमेन्स हॉस्टल की हम सब औरतें
ढूँढती ही रह गईं कोई ऐसा
जिन्हें देख मन में जगे प्रेम का हौसला!
लोग मिले - पर कैसे-कैसे -
ज्ञानी नहीं, पंडिताऊ,
वफ़ादार नहीं, दुमहिलाऊ,
साहसी नहीं, केवल झगड़ालू,
दृढ़ प्रतिज्ञ कहाँ, सिर्फ जिद्दी,
प्रभावी नहीं, सिर्फ हावी,
दोस्त नहीं, मालिक,
सामजिक नहीं, सिर्फ एकांत भीरु
धार्मिक नहीं, केवल कट्टर
कटकटाकर हरदम पड़ते रहे वे
अपने प्रतिपक्षियों पर -
प्रतिपक्षी जो आखिर पक्षी ही थे,
उनसे ही थे.
उनके नुचे हुए पंख
और चोंच घायल!
ऐसों से क्या खाकर हम करते हैं प्यार!
सो अपनी वरमाला
अपनी ही चोटी में गूंथी
और कहा खुद से -
"एकोहऽम बहुस्याम"
वो देखो वो -
प्याले धोता नन्हा घनश्याम!
आत्मा की कोख भी एक होती है, है न!
तो धारण करते हैं
इस नयी सृष्टि की हम कल्पना
जहाँ ज्ञान संज्ञान भी हुआ करे,
साहस सद्भावना!
जब भी सुनती हूँ मैं गीत, आपका मीरा बाई,
सोच में पड़ जाती हूँ, वो क्या था
जो माँ से भी आपको कहते नहीं बनता था,
हालांकि संबोधन गीतों का
अकसर वह होती थीं!
वर्किंग विमेन्स हॉस्टल में पिछवाड़े का ढाबा!
दस बरस का छोटू प्यालियाँ धोता-चमकाता
क्या सोचकर अपने उस खटारा टेप पर
बार-बार ये ही वाला गीत आपका बजाता है!
लक्षण तो हैं उसमें
क्या वह भी मनमोहन पुरुष बनेगा,
किसी नन्ही-सी मीरा का मनचीता.
अड़ियल नहीं, ज़रा मीठा!
वर्किंग विमेन्स हॉस्टल की हम सब औरतें
ढूँढती ही रह गईं कोई ऐसा
जिन्हें देख मन में जगे प्रेम का हौसला!
लोग मिले - पर कैसे-कैसे -
ज्ञानी नहीं, पंडिताऊ,
वफ़ादार नहीं, दुमहिलाऊ,
साहसी नहीं, केवल झगड़ालू,
दृढ़ प्रतिज्ञ कहाँ, सिर्फ जिद्दी,
प्रभावी नहीं, सिर्फ हावी,
दोस्त नहीं, मालिक,
सामजिक नहीं, सिर्फ एकांत भीरु
धार्मिक नहीं, केवल कट्टर
कटकटाकर हरदम पड़ते रहे वे
अपने प्रतिपक्षियों पर -
प्रतिपक्षी जो आखिर पक्षी ही थे,
उनसे ही थे.
उनके नुचे हुए पंख
और चोंच घायल!
ऐसों से क्या खाकर हम करते हैं प्यार!
सो अपनी वरमाला
अपनी ही चोटी में गूंथी
और कहा खुद से -
"एकोहऽम बहुस्याम"
वो देखो वो -
प्याले धोता नन्हा घनश्याम!
आत्मा की कोख भी एक होती है, है न!
तो धारण करते हैं
इस नयी सृष्टि की हम कल्पना
जहाँ ज्ञान संज्ञान भी हुआ करे,
साहस सद्भावना!
अनपहचाना घाट / श्रीकांत वर्मा
धूप से लिपटे हुए धुएँ सरीखे
केश, सब लहरा रहे हैं
प्राण तेरे स्कंध पर !!
यह नदी, यह घाट, यह चढ़ती दुपहरी
सब तुझे पहचानते हैं ।
सुबह से ही घाट तुझको जोहता है,
नदी तक को पूछती है,
दोपहर,
उन पर झुंझकुरों से उठ तुझे गोहारती है ।
यह पवन, यह धूप, यह वीरान पथ
सब तुझे पहचानते हैं ।
और मैं कितनी शती से यहाँ तुझको जोहता हूँ ।
आह !
तूने नहीं पहचाना मुझे ।
इन्हीं पत्तों में दबी है बाँसुरी मेरी कहीं ।
इसी नदिया तीर मेरे गान
डूबे हैं कहीं ।
प्राण! तूने नहीं पहचाना मुझे ।
मैं तुझे जोहा किया,
रोया किया,
गाया किया,
किसी मुट्ठी में युगों से बन्द बादल-सा विकल हूँ हर घड़ी ।
प्राण मैं हूँ बवंडर,
जो कहीं पथरा गया ।
आह! मैं कितनी शती से, यहाँ
तुझको जोहता हूँ,
किन्तु तूने नहीं पहचाना मुझे ।
इन्हीं पत्तों में दबी है बाँसुरी मेरी कहीं ।
किसी टहनी पर कहीं यदि डबडबाए फूल
अधरों को छुला दे,
बाँसुरी मेरी
उठाकर, किन्हीं लहरों में सिरा दे ।
मुझे गा दे....मुझे गा दे !!
घाट हूँ मैं भी मगर
मुझको नदी छूती नहीं है !!
सुबह से ही प्राण ! तुझको मैं जोहता हूँ
पूछता हूँ,
झुंझकुरों से उठ तुझे गोहारता हूँ ।
आह! मेरी सब पुकारें, मेघ बनकर भटकती हैं !
किन्तु तूने
नहीं पहिचाना मुझे !!
धूप से लिपटे हुए धुएँ सरीखे
केश सब लहरा रहै हैं
प्राण तेरे स्कंध पर !
इन्हीं पत्तों में दबी है बाँसुरी मेरी कहीं !!
केश, सब लहरा रहे हैं
प्राण तेरे स्कंध पर !!
यह नदी, यह घाट, यह चढ़ती दुपहरी
सब तुझे पहचानते हैं ।
सुबह से ही घाट तुझको जोहता है,
नदी तक को पूछती है,
दोपहर,
उन पर झुंझकुरों से उठ तुझे गोहारती है ।
यह पवन, यह धूप, यह वीरान पथ
सब तुझे पहचानते हैं ।
और मैं कितनी शती से यहाँ तुझको जोहता हूँ ।
आह !
तूने नहीं पहचाना मुझे ।
इन्हीं पत्तों में दबी है बाँसुरी मेरी कहीं ।
इसी नदिया तीर मेरे गान
डूबे हैं कहीं ।
प्राण! तूने नहीं पहचाना मुझे ।
मैं तुझे जोहा किया,
रोया किया,
गाया किया,
किसी मुट्ठी में युगों से बन्द बादल-सा विकल हूँ हर घड़ी ।
प्राण मैं हूँ बवंडर,
जो कहीं पथरा गया ।
आह! मैं कितनी शती से, यहाँ
तुझको जोहता हूँ,
किन्तु तूने नहीं पहचाना मुझे ।
इन्हीं पत्तों में दबी है बाँसुरी मेरी कहीं ।
किसी टहनी पर कहीं यदि डबडबाए फूल
अधरों को छुला दे,
बाँसुरी मेरी
उठाकर, किन्हीं लहरों में सिरा दे ।
मुझे गा दे....मुझे गा दे !!
घाट हूँ मैं भी मगर
मुझको नदी छूती नहीं है !!
सुबह से ही प्राण ! तुझको मैं जोहता हूँ
पूछता हूँ,
झुंझकुरों से उठ तुझे गोहारता हूँ ।
आह! मेरी सब पुकारें, मेघ बनकर भटकती हैं !
किन्तु तूने
नहीं पहिचाना मुझे !!
धूप से लिपटे हुए धुएँ सरीखे
केश सब लहरा रहै हैं
प्राण तेरे स्कंध पर !
इन्हीं पत्तों में दबी है बाँसुरी मेरी कहीं !!
अनन्त में मौन / राजा खुगशाल
स्व० शमशेर जी के प्रति सादर
कुछ दूर गए शमशेर
और फिर रुक गए
जैसे कह रहे हों --
मुझे एक कहकशाँ कहना है
इस रात के साए से
जैसे कह रहे हों --
कहाँ सीढ़ियाँ उतरने की
ज़हमत उठाए चाँद
मैं अकेला पार कर लूँगा पर्वत
परत-दर-परत
कितना ठोस, कितना स्वच्छ
कितना चमकदार है आसमान
'आसमान में गंगा की रेत
आइने की तरह चमक रही है ।'
क़दम-दर-क़दम
फिर मुखरित है अनन्त में मौन ।
कुछ दूर गए शमशेर
और फिर रुक गए
जैसे कह रहे हों --
मुझे एक कहकशाँ कहना है
इस रात के साए से
जैसे कह रहे हों --
कहाँ सीढ़ियाँ उतरने की
ज़हमत उठाए चाँद
मैं अकेला पार कर लूँगा पर्वत
परत-दर-परत
कितना ठोस, कितना स्वच्छ
कितना चमकदार है आसमान
'आसमान में गंगा की रेत
आइने की तरह चमक रही है ।'
क़दम-दर-क़दम
फिर मुखरित है अनन्त में मौन ।
अनन्य राग / पुष्पिता
विदेश में
सूरीनाम के भारतवंशियों बीच
ढो लाई हूँ भारत देश
अपनी मन-देह में
देश का मातृत्व प्रेम
देह-माटी में है गंगा माटी
स्मृतियों की अँजुली में है
स्वदेशी बादल
समाहित है मेघदूत
मेघदूत में
कभी कालिदास
कभी नागार्जुन कवि
सूर्य के ज्योति-कलश में है
रघुवंश का तेज-पुंज
सूरीनाम के भारतवंशियों की भक्ति में
स्मरण आते हैं कुमार गन्धर्व
जसराज
भीमसेन जोशी
कृष्ण की भक्ति में
पहुँचता है चित्त वृन्दावन
राम की भक्ति में चित्रकूट
शिव-शंकर के उपासकों बीच
ह्रदय पहुँचता है काशी तीरे और उज्जैन
सूरीनाम में
बसे हुए भारत में
बसाती हूँ मैं स्मृतियों का भारत
यहाँ के पुरखों में
आत्मा लखती है अपने पुरखे।
सूरीनाम के भारतवंशियों बीच
ढो लाई हूँ भारत देश
अपनी मन-देह में
देश का मातृत्व प्रेम
देह-माटी में है गंगा माटी
स्मृतियों की अँजुली में है
स्वदेशी बादल
समाहित है मेघदूत
मेघदूत में
कभी कालिदास
कभी नागार्जुन कवि
सूर्य के ज्योति-कलश में है
रघुवंश का तेज-पुंज
सूरीनाम के भारतवंशियों की भक्ति में
स्मरण आते हैं कुमार गन्धर्व
जसराज
भीमसेन जोशी
कृष्ण की भक्ति में
पहुँचता है चित्त वृन्दावन
राम की भक्ति में चित्रकूट
शिव-शंकर के उपासकों बीच
ह्रदय पहुँचता है काशी तीरे और उज्जैन
सूरीनाम में
बसे हुए भारत में
बसाती हूँ मैं स्मृतियों का भारत
यहाँ के पुरखों में
आत्मा लखती है अपने पुरखे।
अनपढ़ / उमेश चौहान
उसके अनपढ़ होने में
कोई कसूर नहीं था उसका
यह उन लोगों के गुनाहों का सबूत भर था
जो पढ़े-लिखे होकर भी
इस बात के गवाह बने हैं कि
वह अनपढ़ है
भले ही वे इसके पक्षधर हों या न हों।
वह अनपढ़ इसलिए थी
क्योंकि उसके माँ-बाप अनपढ़ थे
क्योंकि उसके गाँव में कोई स्कूल नहीं था
या फिर इसलिए भी कि
कोई पढ़ाने वाला न होने के कारण
बंद पड़ा था
उसके पड़ोसी गाँव का स्कूल भी
या शायद इसलिए कि
माँ-बाप के पास नहीं थी
उसके लिए बचपन में
कॉपी-किताबें खरीदने की ताकत भी।
उसके लकड़ियाँ बीनकर लाने पर ही
घर का चूल्हा जलता था
बीमार माँ के पास बैठकर
उसके चकिया पीसने पर ही
घर में रोटी का जुगाड़ होता था
घर के झाड़ू-बरतन से लेकर
गाँव के दूसरे छोर वाले कुएँ से
पानी लाने तक का सारा जिम्मा भी
उसी के सिर था
उसकी दिनचर्या में
पढ़ना भी शामिल हो
इसकी जरूरत तक
कभी महसूस नहीं की थी उसने
न ही किसी और ने कभी में थी इसका
कोई अहसास भी दिलाया था उसको
औरों की तो मौज ही इसी में थी कि
वह अनपढ़ ही बनी रहे सदा
उनकी सेवा-टहल के लिए सदैव सुलभ।
गाँव से शहर तो चली आई है वह
पति के पीछे-पीछे
पर अनपढ़ बने रहना
परिवार का पेट पालने की खातिर
सस्ते में चाकरी करना
नियति का खेल ही मान रखा है उसने
उसका पति भी नहीं चाहता कि
वह पढ़-लिखकर होशियार बन जाय
और करने लगे प्रश्न पर प्रश्न
उसकी मनमानी भरी बातों पर नित्य।
लेकिन अचानक ही अब
कचोटने लगा है उसको
अपना अनपढ़ होना
जब से लगाने पड़ रहे हैं उसे
थाने व कचेहरी के चक्कर
क्योंकि एक झूठे मामले में
दिल्ली की बेलगाम पुलिस ने
जेल भेज दिया है उसके पति को
कई गैर-जमानती आरोप लगाकर।
पति के केस के वे कागजात
जिन्हें पढ़वाने के लिए
नित्य तमाम तरह की जलालत झेलती है वह
और लगाती रहती है मौन
वकीलों और पुलिस वालों के चक्कर
उन्हें खुद न पढ़ पाने की पीड़ा
पसरी रहती है हमेशा उसके चेहरे पर
जैसी स्थायी रूप से समाई रहती है मलिनता
शहर की अनधिकृत झोपड़पट्टियों में।
बेबस निगाहों से कागजों को पलटती
जब भी मिलती है वह पति से
तिहाड़ जेल की सलाखों के बाहर से
उसे यही लगता है कि
यदि वह स्वयं पढ़ पाती उन कागजों को
तो शायद शीघ्र ही
वापस ले जा सकती थी अपने पति को
उन सलाखों के पीछे से निकालकर
स्वयं अपने ही बलबूते।
निराशा के भँवर में डूबती-उतराती
अंततोगत्वा पढ़ना सीख रही है वह आजकल
काले अक्षरों के बीच उजास तलाशती
अपनी निःस्वप्न आँखों में
अनपढ़ होने का सारा दर्द समेटे।
कोई कसूर नहीं था उसका
यह उन लोगों के गुनाहों का सबूत भर था
जो पढ़े-लिखे होकर भी
इस बात के गवाह बने हैं कि
वह अनपढ़ है
भले ही वे इसके पक्षधर हों या न हों।
वह अनपढ़ इसलिए थी
क्योंकि उसके माँ-बाप अनपढ़ थे
क्योंकि उसके गाँव में कोई स्कूल नहीं था
या फिर इसलिए भी कि
कोई पढ़ाने वाला न होने के कारण
बंद पड़ा था
उसके पड़ोसी गाँव का स्कूल भी
या शायद इसलिए कि
माँ-बाप के पास नहीं थी
उसके लिए बचपन में
कॉपी-किताबें खरीदने की ताकत भी।
उसके लकड़ियाँ बीनकर लाने पर ही
घर का चूल्हा जलता था
बीमार माँ के पास बैठकर
उसके चकिया पीसने पर ही
घर में रोटी का जुगाड़ होता था
घर के झाड़ू-बरतन से लेकर
गाँव के दूसरे छोर वाले कुएँ से
पानी लाने तक का सारा जिम्मा भी
उसी के सिर था
उसकी दिनचर्या में
पढ़ना भी शामिल हो
इसकी जरूरत तक
कभी महसूस नहीं की थी उसने
न ही किसी और ने कभी में थी इसका
कोई अहसास भी दिलाया था उसको
औरों की तो मौज ही इसी में थी कि
वह अनपढ़ ही बनी रहे सदा
उनकी सेवा-टहल के लिए सदैव सुलभ।
गाँव से शहर तो चली आई है वह
पति के पीछे-पीछे
पर अनपढ़ बने रहना
परिवार का पेट पालने की खातिर
सस्ते में चाकरी करना
नियति का खेल ही मान रखा है उसने
उसका पति भी नहीं चाहता कि
वह पढ़-लिखकर होशियार बन जाय
और करने लगे प्रश्न पर प्रश्न
उसकी मनमानी भरी बातों पर नित्य।
लेकिन अचानक ही अब
कचोटने लगा है उसको
अपना अनपढ़ होना
जब से लगाने पड़ रहे हैं उसे
थाने व कचेहरी के चक्कर
क्योंकि एक झूठे मामले में
दिल्ली की बेलगाम पुलिस ने
जेल भेज दिया है उसके पति को
कई गैर-जमानती आरोप लगाकर।
पति के केस के वे कागजात
जिन्हें पढ़वाने के लिए
नित्य तमाम तरह की जलालत झेलती है वह
और लगाती रहती है मौन
वकीलों और पुलिस वालों के चक्कर
उन्हें खुद न पढ़ पाने की पीड़ा
पसरी रहती है हमेशा उसके चेहरे पर
जैसी स्थायी रूप से समाई रहती है मलिनता
शहर की अनधिकृत झोपड़पट्टियों में।
बेबस निगाहों से कागजों को पलटती
जब भी मिलती है वह पति से
तिहाड़ जेल की सलाखों के बाहर से
उसे यही लगता है कि
यदि वह स्वयं पढ़ पाती उन कागजों को
तो शायद शीघ्र ही
वापस ले जा सकती थी अपने पति को
उन सलाखों के पीछे से निकालकर
स्वयं अपने ही बलबूते।
निराशा के भँवर में डूबती-उतराती
अंततोगत्वा पढ़ना सीख रही है वह आजकल
काले अक्षरों के बीच उजास तलाशती
अपनी निःस्वप्न आँखों में
अनपढ़ होने का सारा दर्द समेटे।
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