Tuesday, 7 March 2017

अनभिज्ञ / आशीष जोग

गगन के रक्ताभ रंग में,
डूबते सूरज की किरणें,
पूछती हैं आज मुझसे -

जान पाए क्या कभी तुम,
फर्क है क्या
भोर और संध्या की धुंधली लालिमा में?

और मैं,
अनभिज्ञ, निश्चल, मूक, कातर,
दूर नभ में डूबते,
सूरज की किरणों से,
निकलते प्रश्न चिन्हों की दिशा में,
देखता हूँ, खोजता
अजना अजाना एक उत्तर!

क्षितिज के गहेरे धुंधलके
थम लेते हाथ मेरा,
और ले चलते मुझे,
उस पार अपने!

अनब्याही औरतें / अनामिका

"माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की, माई री!"
जब भी सुनती हूँ मैं गीत, आपका मीरा बाई,
सोच में पड़ जाती हूँ, वो क्या था
जो माँ से भी आपको कहते नहीं बनता था,

हालांकि संबोधन गीतों का
अकसर वह होती थीं!

वर्किंग विमेन्स हॉस्टल में पिछवाड़े का ढाबा!
दस बरस का छोटू प्यालियाँ धोता-चमकाता
क्या सोचकर अपने उस खटारा टेप पर
बार-बार ये ही वाला गीत आपका बजाता है!

लक्षण तो हैं उसमें
क्या वह भी मनमोहन पुरुष बनेगा,
किसी नन्ही-सी मीरा का मनचीता.
अड़ियल नहीं, ज़रा मीठा!

वर्किंग विमेन्स हॉस्टल की हम सब औरतें
ढूँढती ही रह गईं कोई ऐसा
जिन्हें देख मन में जगे प्रेम का हौसला!

लोग मिले - पर कैसे-कैसे -
ज्ञानी नहीं, पंडिताऊ,
वफ़ादार नहीं, दुमहिलाऊ,
साहसी नहीं, केवल झगड़ालू,
दृढ़ प्रतिज्ञ कहाँ, सिर्फ जिद्दी,
प्रभावी नहीं, सिर्फ हावी,
दोस्त नहीं, मालिक,
सामजिक नहीं, सिर्फ एकांत भीरु
धार्मिक नहीं, केवल कट्टर


कटकटाकर हरदम पड़ते रहे वे
अपने प्रतिपक्षियों पर -
प्रतिपक्षी जो आखिर पक्षी ही थे,
उनसे ही थे.
उनके नुचे हुए पंख
और चोंच घायल!

ऐसों से क्या खाकर हम करते हैं प्यार!
सो अपनी वरमाला
अपनी ही चोटी में गूंथी
और कहा खुद से -
"एकोहऽम बहुस्याम"

वो देखो वो -
प्याले धोता नन्हा घनश्याम!
आत्मा की कोख भी एक होती है, है न!
तो धारण करते हैं
इस नयी सृष्टि की हम कल्पना

जहाँ ज्ञान संज्ञान भी हुआ करे,
साहस सद्भावना!

अनपहचाना घाट / श्रीकांत वर्मा

धूप से लिपटे हुए धुएँ सरीखे
केश, सब लहरा रहे हैं
प्राण तेरे स्कंध पर !!

यह नदी, यह घाट, यह चढ़ती दुपहरी
सब तुझे पहचानते हैं ।

सुबह से ही घाट तुझको जोहता है,
नदी तक को पूछती है,
दोपहर,
उन पर झुंझकुरों से उठ तुझे गोहारती है ।

यह पवन, यह धूप, यह वीरान पथ
सब तुझे पहचानते हैं ।

और मैं कितनी शती से यहाँ तुझको जोहता हूँ ।
आह !

तूने नहीं पहचाना मुझे ।
इन्हीं पत्तों में दबी है बाँसुरी मेरी कहीं ।
इसी नदिया तीर मेरे गान
डूबे हैं कहीं ।
प्राण! तूने नहीं पहचाना मुझे ।
मैं तुझे जोहा किया,
रोया किया,
गाया किया,
किसी मुट्ठी में युगों से बन्द बादल-सा विकल हूँ हर घड़ी ।
प्राण मैं हूँ बवंडर,
जो कहीं पथरा गया ।
आह! मैं कितनी शती से, यहाँ
तुझको जोहता हूँ,
किन्तु तूने नहीं पहचाना मुझे ।
इन्हीं पत्तों में दबी है बाँसुरी मेरी कहीं ।

किसी टहनी पर कहीं यदि डबडबाए फूल
अधरों को छुला दे,
बाँसुरी मेरी
उठाकर, किन्हीं लहरों में सिरा दे ।
मुझे गा दे....मुझे गा दे !!

घाट हूँ मैं भी मगर
मुझको नदी छूती नहीं है !!

सुबह से ही प्राण ! तुझको मैं जोहता हूँ
पूछता हूँ,
झुंझकुरों से उठ तुझे गोहारता हूँ ।

आह! मेरी सब पुकारें, मेघ बनकर भटकती हैं !
किन्तु तूने
नहीं पहिचाना मुझे !!

धूप से लिपटे हुए धुएँ सरीखे
केश सब लहरा रहै हैं
प्राण तेरे स्कंध पर !
इन्हीं पत्तों में दबी है बाँसुरी मेरी कहीं !!

अनन्त में मौन / राजा खुगशाल

स्व० शमशेर जी के प्रति सादर

कुछ दूर गए शमशेर
और फिर रुक गए
जैसे कह रहे हों --
मुझे एक कहकशाँ कहना है
इस रात के साए से

जैसे कह रहे हों --
कहाँ सीढ़ियाँ उतरने की
ज़हमत उठाए चाँद
मैं अकेला पार कर लूँगा पर्वत

परत-दर-परत
कितना ठोस, कितना स्वच्छ
कितना चमकदार है आसमान
'आसमान में गंगा की रेत
आइने की तरह चमक रही है ।'

क़दम-दर-क़दम
फिर मुखरित है अनन्त में मौन ।

अनन्य राग / पुष्पिता

विदेश में
सूरीनाम के भारतवंशियों बीच
ढो लाई हूँ भारत देश
अपनी मन-देह में
देश का मातृत्व प्रेम
देह-माटी में है गंगा माटी

स्मृतियों की अँजुली में है
स्वदेशी बादल
समाहित है मेघदूत
मेघदूत में
कभी कालिदास
कभी नागार्जुन कवि

सूर्य के ज्योति-कलश में है
रघुवंश का तेज-पुंज
सूरीनाम के भारतवंशियों की भक्ति में
स्मरण आते हैं कुमार गन्धर्व
                   जसराज
                   भीमसेन जोशी
कृष्ण की भक्ति में
पहुँचता है चित्त वृन्दावन
राम की भक्ति में चित्रकूट
शिव-शंकर के उपासकों बीच
ह्रदय पहुँचता है काशी तीरे और उज्जैन

सूरीनाम में
बसे हुए भारत में
बसाती हूँ मैं स्मृतियों का भारत
यहाँ के पुरखों में
आत्मा लखती है अपने पुरखे।

अनपढ़ / उमेश चौहान

उसके अनपढ़ होने में
कोई कसूर नहीं था उसका
यह उन लोगों के गुनाहों का सबूत भर था
जो पढ़े-लिखे होकर भी
इस बात के गवाह बने हैं कि

वह अनपढ़ है
भले ही वे इसके पक्षधर हों या न हों।
वह अनपढ़ इसलिए थी
क्योंकि उसके माँ-बाप अनपढ़ थे
क्योंकि उसके गाँव में कोई स्कूल नहीं था
या फिर इसलिए भी कि
कोई पढ़ाने वाला न होने के कारण
बंद पड़ा था

उसके पड़ोसी गाँव का स्कूल भी
या शायद इसलिए कि
माँ-बाप के पास नहीं थी
उसके लिए बचपन में
कॉपी-किताबें खरीदने की ताकत भी।
उसके लकड़ियाँ बीनकर लाने पर ही
घर का चूल्हा जलता था
बीमार माँ के पास बैठकर
उसके चकिया पीसने पर ही
घर में रोटी का जुगाड़ होता था
घर के झाड़ू-बरतन से लेकर

गाँव के दूसरे छोर वाले कुएँ से
पानी लाने तक का सारा जिम्मा भी
उसी के सिर था
उसकी दिनचर्या में
पढ़ना भी शामिल हो
इसकी जरूरत तक
कभी महसूस नहीं की थी उसने
न ही किसी और ने कभी में थी इसका
कोई अहसास भी दिलाया था उसको
औरों की तो मौज ही इसी में थी कि
वह अनपढ़ ही बनी रहे सदा
उनकी सेवा-टहल के लिए सदैव सुलभ।
गाँव से शहर तो चली आई है वह
पति के पीछे-पीछे
पर अनपढ़ बने रहना
परिवार का पेट पालने की खातिर
सस्ते में चाकरी करना
नियति का खेल ही मान रखा है उसने
उसका पति भी नहीं चाहता कि
वह पढ़-लिखकर होशियार बन जाय
और करने लगे प्रश्न पर प्रश्न
उसकी मनमानी भरी बातों पर नित्य।

लेकिन अचानक ही अब
कचोटने लगा है उसको
अपना अनपढ़ होना
जब से लगाने पड़ रहे हैं उसे
थाने व कचेहरी के चक्कर
क्योंकि एक झूठे मामले में
दिल्ली की बेलगाम पुलिस ने
जेल भेज दिया है उसके पति को
कई गैर-जमानती आरोप लगाकर।

पति के केस के वे कागजात
जिन्हें पढ़वाने के लिए
नित्य तमाम तरह की जलालत झेलती है वह
और लगाती रहती है मौन
वकीलों और पुलिस वालों के चक्कर
उन्हें खुद न पढ़ पाने की पीड़ा
पसरी रहती है हमेशा उसके चेहरे पर
जैसी स्थायी रूप से समाई रहती है मलिनता
शहर की अनधिकृत झोपड़पट्टियों में।

बेबस निगाहों से कागजों को पलटती
जब भी मिलती है वह पति से
तिहाड़ जेल की सलाखों के बाहर से
उसे यही लगता है कि
यदि वह स्वयं पढ़ पाती उन कागजों को
तो शायद शीघ्र ही
वापस ले जा सकती थी अपने पति को
उन सलाखों के पीछे से निकालकर
स्वयं अपने ही बलबूते।

निराशा के भँवर में डूबती-उतराती
अंततोगत्वा पढ़ना सीख रही है वह आजकल
काले अक्षरों के बीच उजास तलाशती
अपनी निःस्वप्न आँखों में
अनपढ़ होने का सारा दर्द समेटे।

अनन्त काल तक / पद्मजा शर्मा

कल मेरे ओठों के बीच
गुलाब की कली थी देर तक
धीरे-धीरे उतर गया रंग आँखों में
समा गई ख़ुशबू साँसों में
कोमलता एहसासों में

चाहती हूँ महकना
होना मुलायम
निखरना और ज़्यादा प्यार में

कली को चाहती हूँ देखना
ओस भीगा खिलता हुआ गुलाब
जिसकी महक से महकता रहे जीवन सदा
और अनन्त काल तक
यह धरती रहे आबाद।

अनन्त / सुदर्शन प्रियदर्शिनी

अनन्त

उस दिन
अपने अन्दर के बाह्यंड में झाँका
कितनी भीड़ थी रिश्तों की नातों की
दौड थी भाग थी
हाथ पाँव चल रहे थे
एक पूरी दुनिया
इस ब्रह्मांड में समाई हुई थी।

पर एक कोने में
मैंने देखा
मैं अपना ही हाथ थामे
अनंत को निहारते...
अकेले खड़ी हूँ।

अधिकार हमारा है / रघुवीर सहाय

इस जीवन में
मैं प्रधानमंत्री नहीं हुआ
इस जीवन में मैं प्रधानमंत्री के पद का
उम्मीदवार भी शायद हरगिज़ नहीं बनूँ
पर होने का अधिकार हमारा है
भारत का भावी प्रधानमंत्री होने का
अधिकार हमारा है

तुम हँस सकते हो हँसो कि हाँ हाँ
हो जाओ अधिकार तुम्हारा है
तो सुनो कि हाँ अधिकार हमारा है

भारत के कोई कोने में
मरकर बेमौत जनम लेकर
भारत के कोई कोने में
खोजता रहूँगा वह औरत
काली नाटी सुन्दर प्यारी
जो होगी मेरी महतारी

मैं होऊँ मेरी माँ होवे
दोनों में से कोई होवे
अधिकार हमारा है
भारत का भावी प्रधानमंत्री

अनदेखा / दिनेश कुमार शुक्ल

आँखे तो देख ही लेती हैं
औपचारिकता में छुपी हिंसा को
बेरूखी का हल्का से हल्का रंग
पकड़ लेती है आँख
फिर भी बैठे रहना पड़ता है
खिसियानी मुस्की लिए
छल कपट इर्ष्या भी
कहाँ छुप पाते हैं
आँखों से
सात पर्दों के भीतर से भी
आँख में लग ही जाता है धुआँ

कठिनाई ये है
कि अपनी ही आँखों का देखा
बहुत थोड़ा पहुँच पाता है हम तक
खुद हम ही रोक देते हैं उसे बीच में
अनदेखा करते जाना
जैसे जीने की शर्त हो

अनजाने ही / उमा अर्पिता

कुछ चित्र
सोच-समझकर
नहीं बनाए जाते…
यही सोच मैंने
बस यूँ ही
एक सपना गढ़ने
की कोशिश की…
एक रिश्ता बुनने का
प्रयास किया…
वक्त उसे क्या
आकार, क्या रूप देगा
यह सोचने-समझने की
फुरसत ही कहाँ थी?

उस समय तो
सब कुछ सुहाना था/मनमोहक था
गीली, नरम रेत पर
चलते हुए
कब दूरियों के काँटे
पाँवों में चुभने लगे
पता ही नहीं चला
भूल गई थी कि
हर रिश्ता गणित
का समीकरण
नहीं होता, जहाँ
दो और दो चार ही होंगे
कब, कहां और कैसे
बदल जाएगा
तब यह जाना ही न था
और
जब तक जाना
वक्त हमारे हाथों से
फिसल चुका था...
अब हमारे बीच
मीलों के फासले हैं,
कभी-कभी
कहीं बहुत दूर से
तुम्हारी टीस भरी आवाज
रात के सन्नाटे में सुनाई देती है
मगर अब
चाहत और वास्तविकता
की दूरी को पाटना
असंभव हो गया है!

अधिनायक / रघुवीर सहाय

राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है।
मखमल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चंवर के साथ
तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर
जय-जय कौन कराता है।
पूरब-पश्चिम से आते हैं
नंगे-बूचे नरकंकाल

सिंहासन पर बैठा,उनके
तमगे कौन लगाता है।
कौन-कौन है वह जन-गण-मन
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज बजाता है।

अधिकारी छाए थे / त्रिलोचन

इन्द्र वरुण कुबेर से अधिकारी छाए थे,
शिविर सजे थे, धूलि कहाँ उन को लगती थी,
ख़ुद आए थे, अपनी ऐंठ अकड़ लाए थे,
कुंभ नगर में श्री इन के कारण जगती थी ।
तीर्थराज की रेणु जाहिलों को ठगती थी,
इन के स्पर्शों से पल-पल पवित्र होती थी,
होता था छिड़काव, बात रस में पगती थी
इन लोगों की । बेचारी जनता सोती थी
कल्पवास के श्रम पर, स्वेदबिंदु बोती थी
बंजर में, आसरा कर्म का ताक रही थी,
अलग-अलग भी धरती पर किस की गोती थी
गंगा कल-कल कल-कल कहती बीच बही थी ।

जनता में कब होगा जनता का अधिकारी,
कब स्वतंत्र होगी यह जनता टूटी-हारी ।

अधिकार का प्रश्न / शशि सहगल

मेरे पास अपना बहुत कुछ था
मेरी मिट्टी
मेरी नदी
मेरा धर्म
पर आज लगता है
जहाँ मैं पैदा हुई
जिस मिट्टी में खेली
जिस नदी से प्यास बुझाई
उसे अपना कहने के लिए
मुझे लेनी होगी अनुमति
सत्ता से
माँगनी होगी भीख
धर्म और मज़हब से
इसके बाद भी
क्या मेरा कुछ हो सकेगा अपना !

अधिकार / सीत मिश्रा

सरकार का अधिकार है
तुम्हारे विचारों पर
तुम्हारी चर्चा पर
तुम्हारे व्यवसाय पर
सरकार का अधिकार है
तुम्हारे नाम में
तुम्हारे धर्म में
तुम्हारी प्रार्थना में
सरकार का अधिकार है
तुम्हारे आशियाने पर
तुम्हारी थाली पर
तुम्हारे भोजन पर
सरकार का अधिकार है
तुम्हारी सांसों पर
तुम्हारी जिंदगी पर

अधिकार / विजय कुमार विद्रोही

आज प्रतिफल चाहिये,हर रोज़ प्रतिपल चाहिये ,
आज मैंने जो किया उसका मुझे फल चाहिये ।
अधिकार है मेरा मुझे अधिकार मेरा आज दो ,
तीरगी को तुम सहो उजला सबेरा आज दो ।

क्यूँ रहूँ कठिनाई में दायित्व ये मेरा नहीं,
तुम सँभालो तुम निहारो कृत्य ये मेरा नहीं ।
क्यूँ कहा था ? तुम मेरे संसार के रखवार हो ,
मेरे जीवन में सुखों के ढेर हो अम्बार हो ।

मैंने ही तुझको चुना है मैंने ही तुमको गढ़ा है ,
मैं ही हूँ जिसकी बदौलत आज तू आगे खड़ा है ।
काश मैं तुझसे उलट उस दूसरे को तारता ,
कम से कम बच्चों को मेरे भूख से ना मारता ।

कह रहे हो टैक्स भर दो, क्यूँ भरूँ मैं वाह जी ! ,
अपनी मेहनत की कमाई तुमको दे दूँ वाह जी !
मुझको क्या मतलब है सारे देश के नुकसान से ,
जिंदगी अपनी जियूँगा मरते दम तक शान से ।

मैं पिता हूँ , मैं पति हूँ , पुत्र हूँ दायित्व है ,
मेरे धन पर सिर्फ अपना मेरा ही स्वामित्व है ।
क्या किया है देश ने मेरे लिये कि मैं करूँ ,
तुम हो ज़िम्मेदार इसके तुम सहो,मैं क्यूँ मरूँ ।
सारे कर्तव्यों को मेरे छोड़ सागर पार दो ,
मैं नागरिक हूँ देश का मुझको मेरा अधिकार दो ।

अदृश्य होने से पहले / उदयन वाजपेयी

अदृश्य होने से पहले
शाम हर ओर फैला रही है
अपना महीन जाल

हर अवसाद में
स्पन्दित होने लगा है
हरेक अवसाद

अद्भुत कला / अमरजीत कौंके

मैं जिन्हें
वर्षों तक
दूध पिलाता रहा
अंगुली पकड़ कर
चलना सिखाता रहा
जब वे मेरी पीठ पर
डंक मार रहे थे
तब मुझे पता चला
कि साँप कभी किसी के
मित्रा नहीं होते

लेकिन जब वे
मेरी पीठ पर
डंक मार रहे थे
और मेरे अंगों को
ज़हर से भर रहे थे
तब वे भी नहीं जानते थे
कि मैं
बचपन से ही
यह ज़हर पी-पी कर
पला बढ़ा हूँ

और मुझे
साँपों के सिर कुचलने की
और ज़हर को
ऊर्जा में बदलने की
अद्वभुत कला आती है ।


मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा

अधगले पंजरों पर / अभिमन्यु अनत

भूकम्प के बाद ही
धरती के फटने पर
जब दफनायी हुई सारी चीज़ें
ऊपर को आयेंगी
जब इतिहास के ऊपर से
मिट्टि की परतें धुल जायेंगी
मॉरीशस के उन प्रथम
मज़दूरों के
अधगले पंजरों पर के
चाबुक और बाँसों के निशान
ऊपर आ जायेंगे
उस समय
उसके तपिश से
द्वीप की सम्पत्तियों पर
मालिकों के अंकित नाम
पिघलकर बह जायेंगे
पर जलजला उस भूमि पर
फिर से नहीं आता
जहाँ समय से पहले ही
उसे घसीट लाया जाता है

इसलिए अभी उन कुलियों के

वे अधगले पंजार पंजर
ज़मीन की गर्द में सुरक्षित रहेंगे
और शहरों की व्यावसायिक संस्कृति के कोलाहल में
मानव का क्रन्दन अभी
और कुछ युगों तक
अनसुना रहेगा ।
आज का कोई इतिहास नहीं होता
कल का जो था
वह ज़ब्त है तिजोरियों में
और कल का जो इतिहास होगा

अधगले पंजरों पर
सपने उगाने का ।

अदृश्य परदे के पीछे से / अरुणा राय

अदृश्य परदे के पीछे से
दर्ज़ कराती जाती हूँ मै
अपनी शामतें
जो आती रहती हैं बारहा

अक्सर
उन शामतों की शक्लें होती हैं
अंतिरंजित मिठास से सनी
इन शक्लों की शुरूआत
अक्सर कवित्वपूर्ण होती है
और अभिभूत हो जाती हूँ मै
कि अभी भी करूणा,स्नेह,वात्सल्य से
खाली नहीं हुई है दुनिया

खाली नहीं हुई है वह
सो हुलसकर गले मिलती हूँ मै
पर मिलते ही बोध होता है
कि गले पड़ना चाहती हैं वे शक्लें
कि यही रिवाज है परंपरा है

कि जिसने मेरे शौर्य और साहस को
सलाम भेजा था
वह कॉपीराइट चाहता है
अपनी सहृदयता का , न्यायप्रियता का
उस उल्लास का
जिससे मुझे हुलसाया था

और ठमक जाती हूँ मै
सोचती हुई-
क्या चेहरे की चमक
मेरे निगाहों की निर्दोषिता
काफ़ी नहीं जीने के लिए

सोच ही रही होती हूँ कि
फ़ैसला आ जाता है परमपिताओं का
और चीख़ उठती हूँ -
हे परमपुरूषों बख्शो..., अब मुझे बख्शो!

अदृश्य रंगरेज के प्रति / विमल राजस्थानी

ओ अदृश्य ‘रंगरेज’ ! बता दे
इतने रंग कहाँ से लाया
नभ से क्षिति तक मंत्रमुग्ध-
करने वाला संसार बसाया

एक अकेले इंद्रधनुष में-
सात रंग के तार पिरोये
धरती के कण-कण में अनगिन-
छवियों वाले रंग समोये

रंगों के इस महासिंधु का-
अथ तो है, पर अंत नहीं है
जल-थल के इस रंध्र-रंध्र में-
कह दो कहाँ ‘वसन्त’ नहीं है

यह विचित्र संसार रंग का,
यह सौन्दर्य-राशि अद्भुत है
इस रहस्य की छाया तक को-
भी विज्ञान कहाँ छू पाया

फूलों की घाटी देखी है
निरखे हैं खग-कुल के डैने
तिनके दाँतों तल दबाये
हेरे हैं चित्रित मृग-छौने

हे प्रभु ! तुम कितने विराट हो
हम कितने हैं ठिगने-बौने
तुमने थमा दिये हाथों में-
ये असंख्य रंगीन खिलौने

रंग-बिरंगे शत-सहस्त्र इन-
रंगों का छवि-जाल अजब है
यह कैसी सम्मोहन-लीला,
यह कैसा अद्भुत करतब है !

लपटों तक में देखा-निरखा है
रंगों का शाश्वत जादू
कितना सुंदर रंग तुम्हारा-
होगा, कोई जान न पाया।

ओ अदृश्य ‘रँगरेज’ बता दे
इतने रंग कहाँ से लाया ?
नभ से क्षिति तक मंत्रमुग्ध
करनेवाला संसार बसाया।

अदृश्य होते हुए / दिविक रमेश

जानता मैं भी हूं कि
लगभग अदृश्य हो रहा हूँ
अदृश्य यूँ कौन नहीं हो रहा

न वह हवा है, न पानी ही
न पेड़ों में वह पेड़त्व ही

जगत चाचा की कौन कहे
अब तो वे भी जो कभी बेचते थे
बिक रहे हैं सौदों से

मैं तो फिर भी
लगता है महज अदृश्य हो रहा हूँ
आज न तसल्ली में तसल्ली है
न दुख में दुख
यहाँ तक कि चालाकियाँ भी अब कहाँ रहीं ढँकी-दबी
सरेआम नग्न हैं
घूम रही हैं बेईमानियाँ पेट फुलाए

चोर चौराहे पर कर रहा है घोषणा कि वह चोर है
हत्यारे को अब नहीं रही ज़रूरत छिपने की

ऐसे दृश्यबंधों में
सभ्यताओं से दूर
किसी कोने में रह रही अछूती जनजाति में बचे
बल्कि बचे-खुचे
थोड़े लिहाज-सा
ग़नीमत है
कि मैं महज अदृश्य हो रहा हूँ
वह जो एक रिश्ता था
है तो अब भी

वह जो एक ताप था
है तो अब भी
वह जो एक नाप था
है तो अब भी
यानी और भी बहुत कुछ जो कि था
है तो अब भी
पर कहाँ-कहाँ

यक़ीन मुझे भी हो रहा है
कि हो रहा हूँ अदृश्य
एक इबारत की तरह जो चमकती थी कभी
कि जो पढ़ी जा सकती थी कभी
और समझी भी

पर नही अफ़सोस मुझे तब भी
कि हूँ तो
हो रहा हूं महज अदृश्य ही

वे रचनाएँ भी तो हैं
बाक़ी है जिनका अभी पढ़ा जाना
चढ़ा जाना जबान और आँखों पर
श्रेष्ठ-जनों की

जब समय में से समय ही किया जा रहा हो अदृश्य
तब क्या बिसात है उन पेड़ों की
जिन पर पत्ते भी हैं और रंग भी
पर वही नहीं है
जिसे होना चाहिए था

तब वज़ूद क्या उन नदियों का
जिनमें जल भी है और लहरें भी
बस वही नहीं है जिसे होना चाहिए था

ग़नीमत है कि अभी है बचा मुझमें
बस वही
भले ही हो रहा हूं मैं अदृश्य

एक हल्की सी चालाकी सिखा दी गई है मुझे भी
एक ग़लत क्रियापद को मैंने भी बना लिया है हथियार
रहने को सुरक्षित

ग़नीमत है कि मुझे याद है इबारत
कि मैं हो रहा हूँ
न कि किया जा रहा हूँ
अदृश्य

अनंग पुष्प / पुष्पिता

तुम
प्रेम का शब्द हो
विदेह प्रणय की
सुकोमल देह
अनंग पुष्प की
साकार सुगंध।
अनुभूति का अभिव्यक्त रूप
अजस्र उष्म अमृत-कुंड
जिसमें नहाती और तपती है देह
प्रणय की ज्वालामुखी आँच में
लावा के सुख को जानने के लिए।
अपनी ही सांसों की
हिमानी हवाओं में
बर्फ होती हुई
स्मृतियों के स्वप्न से
पिघलती है
अपनी ही तृषा-तृप्ति के लिए
पीती हूँ अपनी ही देह का पिघलाव
तुम्हारे सामने न होने पर
दर्द से जन्मे
आँसुओं को
दर्द से जिया है।
प्रतीक्षा की आग के ताप को
आँसू
चुप नदी की तरह पीती है
प्रतीक्षा के प्रवाह में
टूटी लकीरें तोड़ती हैं
संवेदनाओं का साहस।

अनंत / सुदर्शन प्रियदर्शिनी

उस दिन
अपने अन्दर के
ब्रह्माण्ड में
झाँका कितनी
भीड़ थी रिश्तों की,
नातों की
दौड़ थी, भाग थी
हाथ-पाँव
चल रहे थे...
एक पूरी दुनिया
इस ब्रह्माण्ड में
समायी हुई थी

पर एक कोने
में मैंने देखा
मैं अपना ही
हाथ थामे
अनन्त को निहारते
अकेले खड़ी हूँ।

अनायास ही / कुमार सुरेश

हम अनचाहा गर्भ नहीं थे
हत्या कर नाली में बहाया नहीं गया
माँ की छाती में हमारा पेट भरने के लिए दूध था
खाली थे उसके हाथ हमें थामने के लिए

वह गाड़ी चूक गयी हमसे
जो मिलती तो पहुचती कभी नहीं
निकली ही थी ट्रेन
स्टेशन पर गोली चली
उस विमान पर नहीं था बम
जिस पर हम सवार हुए

सड़क पर कितनी ही बार
गिन्दगी और मौत के बीच दुआ सलाम हुई
घर में बचे रहे खुद के बिछाए फंदों से
बीमारिया चूकती रही निशाना
आकाश की बिजली घर पर नहीं गिरी

जब सुनामी आई हम मरीना बीच पर नहीं थे
धरती थर्राई नहीं थे हम भुज में
हम स्टेटस में नहीं थे नौ ग्यारह के रोज
श्रीनगर अहमदाबाद में नहीं थे
जब बम फूटा

हम इस बक्त भी वहा कही नहीं है
जीवन हार रहा है जहाँ म्रत्यु से

फिलवक्त इस जगह पर
हम इतने यह और उतने वह
इतना बनाया और इकठ्ठा किया
क्योकि अनायास ही जहाँ मौजूद थे
वह सही वक्त और सही जगह थी
गलत वक्त गलत जगह पर कभी नहीं थे हम

अनायास / अजित कुमार

रेंगते हुए एक लम्बे से केंचुए को,
मैंने जूते की नोक से जैसे ही छेड़ा,
वह पहले तो सिमटा,
फिर गुड़ीमुड़ी नन्हीं एक गोली बन,
सहसा स्थिर हो गया ।

क्या मैं जानता था
देखूँगा इस तरह
गीली मिट्टी में अनायास
अपना प्रतिबिम्ब ?

अनायास / अनुज लुगुन

अनायास ही लिख देता हूँ
तुम्हारा नाम
शिलापट पर अंकित शब्दों-सा
हृदय मे टंकित
संगीत के मधुर सुरों-सा
अनायास ही गुनगुना देता हूँ
तुम्हारा नाम ।

अनायास ही मेघों-सी
उमड़ आती हैं स्मृतियाँ
टपकने लगती हैं बूँदें
ठहरा हुआ मैं
अनायास ही नदी बन जाता हूँ
और तटों पर झुकी
कँटीली डालियों को भी चूम लेता हॅूँ
रास्ते के चट्टानों से मुस्कुरा लेता हूँ ।

शब्दों के हेर-फेर से
कुछ भी लिखा जा सकता है
कोई भी कुछ भी बना सकता है
मगर तुम्हारे दो शब्दों से
निकलते हैं मिट्टी के अर्थ
अंकुरित हो उठते हैं सूखे बीज
और अनायास ही स्मरण हो आता है
लोकगीत के प्रेमियों का किस्सा ।

किसी राजा के दरबार का कारीगर
जिसका हुनर ताज तो बना सकता है
लेकिन फफोले पड़े उसके हाथ
अॅँधेरे में ही पत्नी की लटों को तराशते हैं
अनायास ही स्मरण हो आता हैं
उस कारीगर का चेहरा
जिस पर लिखी होती हैं सैकड़ों कविताएँ
जिसके शब्द, भाव और अर्थ
आँखों में छुपे होते हैं
जिसके लिए उसकी पत्नी आँचल पसार देती है

क़ीमती हैं उसके लिए
उसके आँसू
उसके हाथों बनाए ताज से
मोतियों की तरह
अनायास ही उन्हे
वह चुन लेती है।

अनायास ही स्मरण हो उठते हैं
सैकड़ों हुनरमन्द हाथ
जिनकी हथेलियों पर कुछ नहीं लिखा होता है
प्रियतमा के नाम के सिवाय ।

अनायास ही उमड़ आते हो तुम
तुम्हारा नाम
जिससे निकलते हैं मिट्टी के अर्थ
जिससे सुलगती है चूल्हे की आग
तवे पर इठलाती है रोटी
जिससे अनायास ही बदल जाते हैं मौसम ।

 अनायास ही लिख देता हूँ
तुम्हारा नाम
अनायास ही गुनगुना देता हूँ
संगीत के सुरों-सा
सब कुछ अनायास
जैसे अपनी धुरी पर नाचती है पृथ्वी
और उससे होते
रात और दिन
दिन और रात
अनायास
सब कुछ....

अनाम ‘वह’ के लिए / पुष्पिता

 वह
हमेशा जागती रहती है
नदी की तरह

वह
हमेशा खड़ी रहती है
पहाड़ की तरह

वह
हमेशा चलती रहती है
हवा की तरह

वह अपने भीतर
कभी अपनी ॠतुएँ
नहीं देख पाती है

वह
अपनी ही नदी में
कभी नहीं नहा पाती है

वह
अपने ही स्वाद को
कभी नहीं चख पाती है ।

अनाथ गौरैया / असंगघोष

दादा डालते थे दाना
रोज सुबह नियम से
चुगने उतर आतीं थीं
दाड़िम के पेड़ से आंगन में
बेधड़क सबकी सब,
गौरैयाँ

बेरोक-टोक-बेखौफ
आज नहीं आती हैं वे
घर के आँगन में
जो अब बचा ही नहीं
उसकी जगह ले ली है
चहार दिवारों में बने
रोशनदानों ने

खिड़कियों ने
दिवार पर टँगी
दादा की तस्वीर के पीछे
खाली जगह में,
ट्यूबलाइट व बल्ब के
होल्डर के ऊपर
गौरैया ने
अपना घर बसा लिया है
एक घर के अन्दर
बने घर में
जहाँ गौरैया को जाने में
छत में टँगे
घूमते पंखे से
जान का खतरा है
जिससे
हम तो अनजान नहीं हैं
पर गौरैया अनजान है

वह जा बैठती है
कभी बंद पंखे पर
कभी चलते पंखे से
टकरा
घायल हो
गिर जाती है

उसे सहानुभूति से उठाकर
इलाज करने वाला
कोई नहीं है
अब दाना डालनेवाला भी
कोई नहीं है!

उस आँगन में
जो कैद है चहार दीवारी में
हमारी संवेदनाएँ मर चुकी हैं
निरीह पक्षियों के लिए
दादा के चले जाने के बाद
गौरैयाँ अनाथ हैं।

अनाम चिड़िया के नाम / एकांत श्रीवास्तव

गंगा इमली की पत्तियों में छुपकर
एक चिड़िया मुँह अँधेरे
बोलती है बहुत मीठी आवाज़ में
न जाने क्या
न जाने किससे
और बरसता है पानी

आधी नींद में खाट-बिस्तर समेटकर
घरों के भीतर भागते हैं लोग
कुछ झुँझलाए, कुछ प्रसन्न

घटाटोप अंधकार में चमकती है बिजली
मूसलधार बरसता है पानी
सजल हो जाती हैं खेत
तृप्त हो जाती हैं पुरखों की आत्माएँ
टूटने से बच जाता है मन का मेरुदंड

कहती है मंगतिन
इसी चिड़िया का आवाज़ से
आते हैं मेघ
सुदूर समुद्रों से उठकर

ओ चिड़िया
तुम बोले बारम्बार गाँव में
घर में, घाट में, वन में
पत्थर हो चुके आदमी के मन में ।

अनाम / हरीशचन्द्र पाण्डे

उस दिन वह आग कल्छुल में आयी थी पड़ोस के घ्ज्ञर से
फूँकते-फूँकते अंगारों को न बुझते देते हुए

कभी-कभी
बुझ ही जाती है घर की सहेजी आग

दाता इतराया नहीं
और इसे पुण्य समझना भी पाप था

रखें तो कहाँ रखें इस भान को

पुण्य और पुण्य से परे भी है कुछ अनाम
जैसे
दिवंगता माँ के नवजात को मिल ही जाती है
कोई दूसरी भरी छाती...

अनाथ-सी आवाज़ / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

मैं जब भी तुमसे बात करना चाहता हूँ
देर तक देखता रहता हूँ ख़लाओं में कहीं
एक अनाथ-सी आवाज़ आह भरती है
अपनी आँख में तब बात बोया करता हूँ
मेरे ख़याल के खेतों में ओस गिरती है
सफ़ेद बर्फ़-सी जम जाती है पुतली पर
लहूलुहान नज़र आती है ज़ुबान मेरी
मगर पुकार में कोई शिकन नहीं मिलती
बस उम्मीद की छाती पर छाले उगते हैं
अभी तो फ़ासलों के फ़र्श पर लेटा हुआ हूँ
साँस लेती हुई हर सोच सिहर उठती है
मेरे दिमाग़ में कुछ दर्द-सा दम भरता है
बदन में बहता हुआ लाल लहू ज़िंदा है
जाने क्या सोचकर किस बात से शर्मिंदा है
मेरी पलकों ने तुम्हें जब भी चूमना चाहा
मैंने फ़ासलों की हर फसल जलाई है
जैसे होली से पहले जलाए रात कोई
जैसे होंठ में दफ़नाई जाए बात कोई
जैसे प्यास में पोशीदा हो बरसात कोई
जैसे ख़्वाब के खेतों में मुलाक़ात कोई
जैसे नीलाम-सी हो जाए नीली ज़ात कोई
जैसे जीत में जम्हाई ले-ले मात कोई
सिवाय इसके मुझे कुछ भी नहीं कहना है
तुम्हारी आँख के आँचल के तले रहना है

अधूरी पैरोड़ी / मुकेश मानस

नेताओं ने पकड़ लिए हैं कान
और अफसरों ने कालर
सावधान आता है डालर

आंखें कोई खुली न रक्खे
बंद ही रखे कान
मेहमानों के भेस में प्यारे
आता है शैतान
भागो, दौड़ो कैम्पा लाओ
औ’ झलने को झालर
सावधन आता है डालर

रचनाकाल:1992

अधूरी रहेगी / महेश चंद्र पुनेठा

रोज़-रोज़ करती हो साफ़
घर का एक-एक कोना
रगड़-रगड़ कर पोछ डालती हो
हर-एक दाग-धब्बा
मंसूबे बनाती होगी मकड़ी
कहीं कोई जाल बनाने की
तुम उससे पहले पहुँच जाती हो वहाँ
हल्का धूसरपन भी
नहीं है तुम्हें पसंद

हर चीज़ को
देखना चाहती हो तुम हमेशा चमकते हुए
तुम्हारे रहते हुए धूल तो
कहीं बैठ तक नहीं सकती
जमने की बात तो दूर रही

इस सब के बावजूद
रह गए हैं यहाँ
भीतर-बाहर
अनेक दाग-धब्बे
अनेक जाले
धूल की परतें ही परतें
धूसरपन ही धूसरपन

सदियों से बने हुए हैं जो
बने रहेंगे जब तक ये
अधूरी ही रहेगी तुम्हारी साफ़-सफ़ाई ।

अदृश्य इमारत / राग तेलंग

शंका की इमारत
बहुत जल्द तामीर होती है
वह भी
बिना किसी साजो-सामान के

जितनी होती नहीं
उससे कहीं ज्यादा बुलंद
दिखाई देती है

इसके कारीगर
आम तौर पर
अदृश्य बने रहते हैं

जिद्दी,आत्मकेंद्रित और
लालची लोगों का यह आवास
है एक ऐसा गहना
जो चैन चुरा लेता है सबका ।

अदृश्य / भारत भूषण अग्रवाल

ऐसा नहीं है कि मैं जानता न होऊँ
उस दिन
लंच को जाते हुए
रेस्तराँ की आठवीं सीढ़ी पर
तुमने अचानक ठिठककर
मेरी ओर क्यों देखा था
उन आँखों से
जिनमें मेरा इतिहास अंकित है।

है अगर कुछ
तो सिर्फ़ यही
कि तुमने
मेरी वह बाँह नहीं देखी
जिसने तुम्हें थामा था।

रचनाकाल : 19 मार्च 1965

अनहद के स्वर / विमल राजस्थानी

सुन रे मन ! तू अनहद के स्वर छोड़ डगर बाहर की
अंतर पथ पर कोमल युगण चरण धर
सुन रे मन तू अनहद के स्वर

काशी-काबा
शोर-शराबा
तीरथ-संगम
सब जड़-जंगम

चाँद-सितारे
व्यर्थ निहारे
तुम्हें पुकारे
उर-अभयन्तर
पल-पल तेरा मरण-शरण रे !
क्यों न करे ‘सोह्म’ ही वरण रे !
सहस्रार से सुधा झर रही है
झर-झर-झर
सुन रे मन ! तू ‘अनहद’ के स्वर

ये जो हैं रे चार दिशाएँ
ऊपर-नीचे, दाँयें, बाँयें
ये सब केवल भ्रम फैलाएँ
मन को भटकायें, अटकायें
पोथी-पतरे, थोथी-सतरें
भूलो मत रे ‘ढाई आखर’
सुन रे मन ! तू ‘अनहद’ के स्वर
देह-चदरिया झीनी-झीनी
जनम-जनम मटमैली कीनी
तज-तज दीं ‘कैरी’ रस भीनी
छिलके और गुठलियाँ बीनी
मरूथल में ही भटका-भटका
लिए-लिए भीतर रस-निर्झर
सुन रे मन तू ‘अनहद’ के स्वर

अधूरी चीज़ें तमाम. / प्रयाग शुक्ल

अधूरी चीज़ें तमाम
दिखती हैं
किसी भी मोड़ पर.
करवटों में मेरी.
अधूरी नींद में.
हाथ जब लिखने लगता है कुछ,
जब उतर आती है रात.

अनसुलझा प्रश्न / उमा अर्पिता

आश्चर्य है मुझे
बुद्धिवादी कहलाने वाले
मेरे तमाम दोस्त
अँधे, बहरे या गूँगे हो गये हैं।
मैं समझ नहीं पायी
ऐसा क्यों और कैसे हुआ!
किस गुनाह के तहत
नोंच लिये गये उनके दिमाग
और विचारों को बेजुबान कर दिया गया
या फिर ऐसा तो नहीं
कि उनकी जुबान
उल्टी लटक गयी हो खुद ही
चमगादड़ की तरह उनके पेट में...
हो ऐसा भी सकता है
कि जिजीविषा की छटपटाहट में
उन्होंने अपनी सोच को
सोने के बिस्कुटों से
विनिमय कर लिया हो
ये सब कुछ हो सकता है
और ये सब नहीं भी हो सकता है!
मैं हैरान और परेशान हूँ
कि किस तरह
दोस्तों की आवाज़ में
असर पैदा हो!

अनसुना सुनने को मैं / संजय अलंग

सब छूटेगा यहाँ
कुछ साथ न जाएगा
होगा साथ सदा,
मुस्कुराहट के प्रकाश का


गहरे गव्हरों में होगा ग़म और दुःख जब
अनसुना सुनने को होऊँगा मैं
उस काल में
जहाँ फेंक दिया जाता है दुःख
अख़बार की तरह पढ़कर
सुनता हूँ क्यों मैं अनसुना
होना क्यों चाहता हूँ दुःख के लिए आवाज़


कोई नहीं चाहता किसी को
अनसुना और अनसुना हो जाता है


छोटी बच्ची की प्यास
फेंक दी जाती है, इच्छाओं द्वारा
पिघलती आँख भी
तुम्हे नहीं खोल पाती


आना होगा आगे, काले काजल को हटा
कष्ट की साँस में भी खोलनी होंगी आँखें
विद्वता पर न छोड़ें उड़ान की पाँखें

अनसुने अध्यक्ष हम / किशन सरोज

बाँह फैलाए खड़े,
निरुपाय, तट के वृक्ष हम
ओ नदी! दो चार पल, ठहरो हमारे पास भी ।

चाँद को छाती लगा
फिर सो गया नीलाभ जल
जागता मन के अंधेरों में
घिरा निर्जन महल

और इस निर्जन महल के
एक सूने कक्ष हम
ओ भटकते जुगनुओ ! उतरो हमारे पास भी ।

मोह में आकाश के
हम जुड़ न पाए नीड़ से
ले न पाए हम प्रशंसा-पत्र
कोई भीड़ से

अश्रु की उजड़ी सभा के,
अनसुने अध्यक्ष हम
ओ कमल की पंखुरी! बिखरो हमारे पास भी ।

लेखनी को हम बनाए
गीतवंती बाँसुरी
ढूंढते परमाणुओं की
धुंध में अलकापुरी

अग्नि-घाटी में भटकते,
एक शापित यक्ष हम
ओ जलदकेशी प्रिये! सँवरो हमारे पास भी ।

अधूरी कविता / अर्पण कुमार

लिखी गई कविता
हो जाती है बेमानी अक्सरहाँ
कई बार लिखे जाने के चंद
क्षणों बाद ही
रह जाते हैं भाव अधूरे
समय के झोंके में हिलते-डुलते
साया-मात्र भर

अंदर बैठा गवाह
बगैर स्खलित हुए
कुछ-न-कुछ
रख नहीं पाता कदाचित
अपनी बात
एक बार भी ।

अधूरी कविता / वर्तिका नन्दा

थके पांवों में भी होती है ताकत
देवदारों में चलते हुए
ये पांव
झाड़ियों के बीच में से राह बना लेते हैं
गर
भरोसा हो
सुबह के होने का
सांसों में हो कोई स्मृति चिह्न
मन में संस्कार
और उम्मीदों की चिड़िया
जिंदा है अगर
तो जहाज के पंछी को
खूंटे में कौन टांग सकता है भला?

अधूरी कविता / संजय कुंदन

एक अधूरी कविता मिटाई न जा सकी
वह चलती रही मेरे साथ-साथ
मैंने एक आवेदन लिखना चाहा
वह आ खड़ी हुई और बोली- बना लो मुझे एक प्रार्थना
एक दिन सबके सामने उसने कहा- मुझे प्रेमपत्र बना कर देखो
मैं झेंप गया

कई बार धमकाया उसे
कि वह न पड़े मेरे मामले में
और हो सके तो मुझे छोड़ दे

एक दिन गर्मागर्म बहस में
जब मेरे तर्क गिर रहे थे जमीन पर
वह उतर आई मेरे पक्ष में
पलट गई बाजी
बगलें झाँकने लगे मेरे विरोधी
जो इस समय के दिग्गज वक्ता थे।

अधूरी कविताओं में कवि / मुकेश मानस

कवि लिखता है बहुत सी कवितायें
उनमें से बहुत ही कम
हो पातीं हैं पूरी
ज़्यादातर रह जातीं हैं
आधी और अधूरी

अधूरी कविताओं में होता है कवि
सोचता-विचारता हुआ
परास्त होता हुआ कभी
तो कभी जूझता हुआ
कभी ख़ुद से
और कभी अपने समय से

अधूरी कविताओं में होता है कवि
साँस भरता हुआ
और अधूरी कविताओं में होती हैं
कवि की अपार सम्भावनाएँ

रचनाकाल : 2002

अदालत में औरत / कुमार सुरेश

सर्दियों की उदास शाम
काला कोट पहनना ही चाहती है
शाम के रंग में घुली-मिली औरत
सोचती है उसे अब
वापस लौट ही जाना चाहिए

उसके साथ घिसटती
पांच-छः बरस की बच्ची की
खरगोश जैसी आँखों में थिर
उदासी की परछाईयों के बीच
भूख ने डेरा जमा लिया है
वह चकित उस ग्रह को
जानने की कोशिश कर रही है
जहाँ भुगतना है उसे जीवन

औरत आखिरी बार बुदबुदाती है
क्या अब वह जाए ?
गांवनुमा कस्बे के कोर्ट का बाबू
उदासीन आँखों से
औरत को देखकर भी नहीं देखते हुए कहता है
कह तो दिया
जब खबर आएगी बता देंगे

कचहरी के परिसर में लगे
हरसिंगार के पेड़ों की छायाएं
लम्बी हो गयी हैं
इनपर संभलकर पैर रखते हुए
वह एक तरफ को चल देती हैं

कोर्ट के सामने
अब लगभग सुनसान सड़क के दूसरी ओर
झोपड़ीनुमा दुकान पर बैठा चायवाला
दुकान बढ़ने की सोच रहा है
औरत कुछ सोचती-सी वहां पहुंची
चाय लेकर सुड़कने लगी
बच्ची दुकान पर रखे
बिस्किट के लगभग खाली मर्तबानों को
ललचाई नज़रों से देख रही है
चायवाले ने पूछा
कुछ पता लगा ?
औरत ने उदासीन भाव से
नकारात्मक सर हिलाया

चायवाला मुझे शहरी ओर अजनबी
समझकर बताने लगा
इसके आदमी को चोरी के इल्जाम
में पकड़ा था
जमानतदार न होने से
कई महीनों से जेल में बंद है
रोज उसके छूटने की खबर
पूछने आती है

संवाद के दौरान
औरत चुपचाप खड़ी रही
उसने यह भी नहीं देखा
चायवाला किससे कह रहा है
चाय पीकर धोती की कोर से
पैसे निकाल चायवाले को दिए
थके क़दमों से एक ओर चल दी
बच्ची रोटी हुई पीछे भागी

साफ़ था औरत को मुझमें कोई
दिलचस्पी नहीं है
मैं भी अपनी किसी परेशानी के चलते
यहाँ आया हूँ
मुझे भी उसकी परेशानी में नहीं
उसके जवान औरत होने में ही
कुछ दिलचस्पी है

उसके जाने के बाद
उसे ख्यालों से झटकने के लिए
मैंने सर हिलाया
अदालत की पुरानी मोरचा खाई इमारत
अँधेरे की चादर ओढ़कर
लगभग
अदृश्य हो चुकी थी ।

अथ से इति तक / विद्याभूषण

भाई तुलसीदास !
हर युग की होती है अपनी व्‍याधि-व्‍यथा ।
कहो, कहाँ से शुरू करूँ आज की कथा ?
मौजूदा प्रसंग लंका-कांड में अटक रहा है ।
लक्ष्‍मण की मूर्च्‍छा टूट नहीं रही,
राम का पता नहीं,
युद्ध घमासान है,
मगर यहाँ जो भी प्रबुद्ध या महान है,
तटस्‍थ है,
चतुर सुजान है ।

ज़हर के समन्‍दर में
हरि‍याली के बचे-खुचे द्वीपों पर
प्रदूषण की बरसात हो रही है ।
आग का दरि‍या
कबाड़ के पहाड़ के नीचे
सदि‍यों से गर्म हो रहा है ।

भाई तुलसीदास !
आज पढ़ना एक शगल है,
लि‍खना कारोबार है,
अचरज की बात यह है
कि‍ ‍जि‍सके लि‍ए क़ि‍ताबें ज़रूरी हैं,
उसे पढ़ना नहीं सि‍खाया गया,
और जि‍न्‍हें पढ़ना आता है,
उन्‍हें ज़ुल्म से लड़ना नहीं आता।
इसलि‍ए भाषण एक कला है,
और जीवन एक शैली है ।
जो भी यहां ग्रह-रत्‍नों के पारखी हैं,
वे सब चाँदी के चक्‍के के सारथी हैं ।

वाकई लाचारी है
कि‍ प्रजा को चुनने के लि‍ए हासि‍ल हैं
जो मताधि‍कार,
सुस्‍थापि‍त है उन पर
राजपुरूषों का एकाधि‍कार ।
मतपेटि‍यों में
वि‍कल्‍प के दरीचे जहाँ खुलते हैं,
वहाँ से राजपथ साफ़ नज़र आता है,

और मुझे वह बस्‍ती याद आने लगती है
जो कभी वहाँ हुआ करती थी-
चूँकि आबादी का वह काफ़ि‍ला
अपनी मुश्‍कि‍लों का गट्ठर ढोता हुआ
चला गया है यहाँ से परदेस -
सायरन की आवाज़ पर
ईंट-भट्ठों की ‍चि‍म‍नि‍याँ सुलगाने,
खेतों-बागानों में दि‍हाड़ी कमाने
या घरों-होटलों में खट कर रोटी जुटाने ।

भाई तुलसीदास !
जब तक राजमहलों के बाहर दास-बस्तियों में
रोशनी की भारी कि‍ल्‍लत है,
और श्रेष्‍ठि‍-जनों की अट्टालि‍काओं के चारों ओर
चकाचौंध का मेला है,
जब तक बाली-सुग्रीव के वंशजों को
बंधुआ मज़दूर बनाए रखता है,
वि‍भीषण सही पार्टी की तलाश में
बार-बार करवटें बदल रहा है,
और लंका के प्रहरी अपनी धुन में हैं,
तब तक दीन-दु‍खि‍यों का अरण्‍य-रोदन
सुनने की फुर्सत कि‍सी के पास नहीं ।

कलि‍युग की रामायण में
उत्‍तरकाण्‍ड लि‍खे जाने का इन्‍तज़ार
कर रहे हैं लोग,
सम्‍प्रति‍, राम नाम सत्‍य है,
यह मैं कैसे कहूँ !
मगर एक सच और है भाई तुलसीदास!
ज़ि‍न्‍दगी रामायण नहीं, महाभारत है।
कौरव जब सुई बराबर जगह देने को
राजी न हों
तो युद्ध के सि‍वा और क्‍या रास्‍ता
रह जाता है ?

प्रजा जब रोटी माँगती हो
और सम्राट लुई केक खाने की तज्वीज़
पेश करे
तो इति‍हास का पहि‍या कि‍धर जाएगा ?
डंका पीटा जा रहा है,
भीड़ जुटती जा रही है,
चि‍नगारि‍याँ चुनी जा रही हैं,
पोस्‍टर लि‍खे जा रहे हैं,
और तूति‍याँ नक्‍कारखाने पर
हमले की हि‍म्‍मत जुटा रही हैं ।

अथाह जीवन / त्रिलोचन

जीवन कैसा हो- इस को तो जीने वाले
जागरूक हो पर जैसा चाहें वैसा
कर सकते हैं । मानव पीले गोरे काले
अपने घर का रूप रचें जी चाहे जैसा ।

लेकिन घर के भीतर जो स्वरूप मिलता है
मानव का वह घर के बाहर और और है,
घर के भीतर भी संबंध-भाव खिलता है
बहुरूपों में । दुनिया भर में यही तौर है ।

जहाँ अनिच्छा हो संगों से वहाँ संग का
कोई अर्थ नहीं । उचित तो है लगाव हो
जीवन का जीवन से, सब के अलग रंग का
आदर सभी करें सच्चा सहयोग-भाव हो ।

भिन्न-भिन्न रुचि हो तो भी निबाह होता है
यह सब में हो तो जीवन अथाह होता है ।

रचनाकाल  : 21 जनवरी 1978

अदब से / विजय गुप्त

खेत में
गर्व से दिप-दिप
खड़ी है
शिशु रोएँवाली
भिंडी

संभलना,
अदब से छूना
हरेपन के उजास को ।

अदम्य / प्रतिभा सक्सेना

धरती तल में उगी घास
यों ही अनायास,
पलती रही धरती के क्रोड़ में,
मटीले आँचल में .
हाथ-पाँव फैलाती आसपास .
मौसमी फूल नहीं हूँ
कि,यत्न से रोपी जाऊँ, पोसी जाऊँ!

हर तरह से, रोकना चाहा, .
कि हट जाऊँ मैं,
धरती माँ का आँचल पाट कर ईंटों से
कि कहीं जगह न पाऊँ .
पर कौन रोक पाया मुझे?
जहाँ जगह मिली
सँधों में जमें माटी कणों से
फिर-फिर फूट आई.

सिर उठा चली आऊँगी,
जहाँ तहाँ, यहाँ -वहाँ,
आहत भले होऊँ
हत नहीं होती,
झेल कर आघात,
जीना सीख लिया है,
उपेक्षाओँ के बीच
अदम्य हूँ मैं!

अदाकार / शर्मिष्ठा पाण्डेय

नज़र का पानी वो सुलगा के राख करता है
राज़ खूब कीमियागरी के फाश करता है

इन्तेहा पर्दानशीनी की इस कदर है रवां
जला सय्यारों को,धुएं से चाँद ढंकता है

नर्गिसे-मयगूं पे साया किसी आसेब का जान
मय की बोतल पे दुआ हौले-हौले फूंकता है

सीपियों की तन्हाई से बड़ा ग़मगीन रहा
अर्के-जिस्म को मोतियों की जगह रखता है

हरफनमौला है शपा माहिरे-अदाकारी
रूह के शहर में सजा के बदन हँसता है

अदालत / अवतार एनगिल

साक्षी :

एक अदद
चश्मदीद गवाह
गंगा राम
वल्द गीता राम
असुरक्षा के बेपैंदे धरातल पर खड़ा
साक्षी देता है
और कहता है
हवा को आग----आग को हवा
कितना झूठा है 'आंखों देखा सच्च
कितना सच्चा है कविता का झूठ ।

वकील :

एक अदद वकील
काले लबादे वाला भील
कानून का भाला लिए
कितावों का हवाला लिए
देखता है सिर्फ
अभियुक्त का गला
लहराते हैं 'तथ्य'
दनदनाता है टाईपराईटर
ठीक करते हैं आप
गले बंधे झूठ की गांठ ।

न्यायाधीश :

एक अदद न्यायाधीष
लंच के बाद
निकालते हैं
टूथ प्रिक से
जाने किसका
दांतों फंसा मांस
कुछ ही दिनों में
बदली के साथ-साथ
हो जाएगी तरक्की भी

जानते हैं खूब
कि वकील की दलील ने
पेशियों की तारीखें ही बदलनी हैं
जस्टिस डिलेड इज़ दा जस्टिस अवार्डिड ।

अभियुक्त :

एक अदद अभियुक्त्
कटघरे में नियम बंधा
चौंधिया गया था
और फिर बिंध गईं थीं उसकी आँखें
शब्दों की शमशीरों से

प्रतिलिपियों के खर्चों झुका
तर्कों के घ्रेरों रुका
पगला गया है
इस व्यूह में
धनुषधारी अर्जुन का बेटा ।

अदालतः

एक अदद चश्मदीद गवाह----गंगा राम
एक अदद वकील----काले लबादे वाला भील
एक मांसाहारी न्यायाधीष
देते हैं निर्णय :
एक अदद शाकाहारी अभियुक्त निश्चय ही दोषी है।

अधूरापन / केशव

बीत गया यूँ आज भी
पर देखा न कहीं अंत

उदास खिड़्कियों में
जाले में उलझी पीली तितली-सा
लटक रहा सूरज
अटकी रही हलक में
मौसम की चीख
झरते रहे दिन की खोखली
छत से समाचार
और ठोस उंगलियाँ टाईपराईटर पर
पथरीली ईमारतों के अन्दर
करती रहीं वक़्त टाईप

गुज़र गया
गुज़र गया हर कोई
अजनबी सा
दिन के तालाब में
महज़ एक कंकड़ फ़ैंक


लावारिस दिन भटका किया हर कहीं
नहीं अपनाया किसी ने उसे
चाहे थे खाली सब हाथ
देखा नहीं उसने अन्त
अंत है कहाँ
रोज़-रोज़ लौट आने वाले
इस अधूरे पन का

अधूरापन / अपर्णा अनेकवर्णा

अब मेरे पास जो आई हो तो क्या आई हो.. — मजाज़

अपना सिर तुम्हारे पीठ से टिकाए
जब रूह सुकूनो से भर रही होती हूँ ...
तुम हँसना नहीं तब..
न ही मुझे खींचना आगे..

अब जान गई हूँ..
वहाँ मेरी लिए कोई जगह नहीं..
ढेरों किस्से हैं वहाँ.. पुरानी यादें..
कुछ ज़ख़्म.. धीरे-धीरे सूखते हुए

दिल सीने में है मगर
पीठ को भी है धड़काता हुआ
वो नर्म-नर्म सी धड़कनें
पहुँच ही जाती है मुझ तक.. मुझमें..

हाथ पीछे ले जा कर अपना
थाम लेते हो मेरा हाथ..
खींच कर धर लेते हो
जब अपने सीने पे..

सर को पीछे झुका कर तनिक-सा
मेरे सर पे टेक देते हो तुम..
एक कायनात मुकम्मल हो उठती है
बाँट लेते हैं हम सातों जन्म..

यह अधूरा-सा आगोश ही..
मुझे पूरा किए देता है..
रूंधें से तुम.. ये भी तो कह देते हो..
'अब मेरे पास जो आई हो तो क्या आई हो..'

अत्याचारी / ब्रजेश कृष्ण

अब वे क़तई बदसूरत नहीं होते
न ही उनकी आँखें होती हैं खूँखार
न चेहरे पर कोई कटे हुए का निशान

वे इतने सहज होते हैं
कि पहचानना मुश्किल है अलग से
उनके चेहरे पर कहीं नहीं होता
अत्याचारी होने का सुबूत

उन्हें आती है जादूगरी
वे जानते हैं हिंस्र नफ़रत को
खिलखिलाती हँसी के पीछे छिपाना
या अपने गुस्से पर झट चढ़ाना
मुस्कराहटों का मुखौटा

वे बैठते हैं सिंहासन की बगल में
और क़ानून की किताब के ऊपर
होते हैं उनके पैर
उनके हाथ होते हैं बहुत लम्बे
इतने कि दबोच लें पूरे शहर को

मगर वे ऐसा नहीं करते
वे हँसते हैं भद्र भोली और निर्दोष हँसी
और धीरे-धीरे खेलते हैं शहर से
चतुर खिलाड़ी की तरह।

अत्याचारियों के स्मारकों पर धर्म-लेख / संजय चतुर्वेदी

उन्होंने कोई अच्छे काम नहीं किए थे जिंदगी में
यह उन्हें पता था
और उन्हें भी
जिन्होंने किया उनका अंतिम संस्कार
उन्हें पता था
शायद इनसान उन्हें कभी माफ न कर सकें
पर उन्हें उम्मीद थी
इबारतें उन्हें माफ कर देंगी
और वे ऐसा पहले भी करती रही हैं।

अधूरा है: सुन्दर है/ बलदेव वंशी

अधूरा है!
इसीलिए सुन्दर है!
दुधिया दाँतों तोतला बोल
बुनाई हाथों के स्पर्श का अहसास!
ऊनी धागों में लगी अनजानी गाँठें, उचटने
सिलाई के टूटे-छूटे धागे
चित्र में उभरी, बे-तरतीब रंगतें-रेखाएं

शायद इसीलिए
अभावों में भाव अधिक खिलते हैं,
चुभते सालते और खलते हैं

एक टीस की अबूझ स्मृति
जीवन भर सालने वाली
आकाश को दो फाँक करती तड़ित रेखा
और ऐसा ही और भी बहुत कुछ
जिसे लोग अधूरा या अबूझ मानते आए हैं
उसे ही सयाने लोग
पूरा और सुन्दर बखानते गए हैं

चाहे हुए रास्ते, जीवन और पूरे व्यक्ति
कहाँ मिलते हैं!
नियति के हाथों
औचक मिले
मानसिक घाव
पूरे कहाँ सिलते हैं!...

अनमेल मेल / अमरेन्द्र

मुझको क्या लेना भारत से, मेरा धर्म रहे
मन्दिर-मस्जिद दिखे, भले ही ईश्वर-अल्लाह दूर
भले उपासना और इबादत के सर चकनाचूर
अगर रहे तो पंडित-मुल्ला का ही कर्म रहे ।

भक्त वही, जो भीड़ बना कर पीछे-पीछे हो
पंडित-मुल्ला जो भी बोले, बोले भीड़ वही
बिन जाने, क्या खाँसी में करता है खटक दही
गला वही है, जो काते के नीचे-नीचे हो ।

आँखों की दुनिया है धूमिल, स्वर्ग देखना चाहे
छपी किताबों, दीवारों में किसका दर्शन होगा
बाँच रहा है धर्मगं्रथ को, जन्मजात जो बोंगा
भूत, भविष्यत, वर्तमान के कंगूरों को ढाहे ।

जब त्रिकाल ही तीन फाँक हो, न्यास कहाँ पर होगा
निराकार-साकार कोई हो, वास कहाँ पर होगा ।

अनमिट परछाईं / पुष्पिता

सूर्य को
सौंप देती हूँ तुम्हारा ताप
नदी को
चढ़ा देती हूँ तुम्हारी शीतलता
हवाओं को
सौंप देती हूँ तुम्हारा वसंत
फूलों को
दे आती हूँ तुम्हारा अधर-वर्ण
वृक्षों को
तुम्हारे स्पर्श की ऊँचाई
धरती को
तुम्हारा सोंधापन
प्रकृति को
समर्पित कर आती हूँ तुम्हारी साँसों की अनुगूँज
वाटिका में
लगा आती हूँ तुम्हारे विश्वास का अक्षय-वट
तुम्हारी छवि से
लेती हूँ अपने लिए अनमिट परछाईं
जो तुम्हारे प्राण से
मेरे प्राण में
चुपचाप कहने आती हैं
तुम्हारी भोली अनजीवी आकांक्षाएँ
तुम्हारे दिवस का एकांत एकालाप
तुम्हारी रातों का एकाकी करुण विलाप
मंदिर की मूर्ति में
दे आती हूँ तुम्हारी आस्था
ईश्वर में
ईश्वरत्व की शक्ति भर पवित्रता
तुमसे मिलने के बाद !

अधूरा प्यार / विमल कुमार

कर रहा हूँ
तुमसे अब तक मैं
अधूरा प्यार
नहीं जान पाया हूँ
तुम्हें पूरा

अभी तो मैं
नहीं जान पाया हूँ
ख़ुद को

मरने के ठीक पहले
शायद मैं कह पाऊँगा
तुम्हें कितना जान पाया
कितना तुम्हें कर पाया
प्यार

पर चाहता तो मैं हमेशा था
करना पूरा प्यार
जानना तुम्हें पूरा का पूरा
लेकिन कभी भी किसी को
पूरी तरह नहीं जान सकता

कोई चीज़ नहीं होती पूरी
इसलिए मैं करता रहूँगा
तुमसे मैं हमेशा अधूरा प्यार ।

अधूरा घोंसला / क्रांति

तुमने जब पकड़ा था चिड़िया को
उसकी चोंच में कुछ तिनके थे
और पेड़ पर लटका था
उसका अधूरा घोंसला।

चिड़िया गिनती नहीं जानती
इसलिये बरसों का हिसाब नहीं रखती
पर एक बात वह समझती हैं कि
जब वह नई-नई पिंजरे में बंद हुई थी
आँगन में खूब धूप आती थी
और दूर दिखाई देता था उसका पेड़।

चिड़िया के देखते ही देखते
हर ओर बड़ी-बडी़ इमारतें खडी हो गई
जिनके पीछे उसका सूरज खो गया
और खो गया वह पेड़ जिस पर
चिड़िया एक सपना बुन रही थी

चिड़िया की आँखों मे
रह-रह कर घूमता है
अपना अधूरा घोंसला।

अनमना रोमांस / भूपिन्दर बराड़

दफ्तरों से छूटते ही
बस स्टॉप के सामने
फिर जमा होती है भीड़

एक एक कर
रूकती हैं लोकल बसें
धुआँ उगलती हुई

पसीने से निचुड़ी भीड़ में
मचता है कोहराम
हरेक को है घर लौटने की बेसब्री

बस वही है जो हर बार
अनसुनी करती है
कंडक्टर की सीटी
पल्लू में उंगलीयाँ उलझाए
उलझी रहती है
न सुलझने वाले
अटपटे सवालों में

वह जानती है
उन सवालों का
कोई उत्तर नहीं
न उसके पास
न किसी और के

हैरत है कि बिलकुल यही बात
सोच रहा है वह
जो बार बार पोंछता है ऐनक
और जेब टटोलता है
कुछ खो गया ढूंढते हुए

कंडक्टर की सीटियों को अनसुनी करते
कनखियों से एक दूसरे के भांपते
दो अजनबी
एक अजनबी शहर में
करते हैं सही बस का इंतजार

अनभिज्ञ चिड़िया / भावना कुँअर

एक चिड़िया

आयी फुदकती सी

नाज़ुक सी, चंचल सी

अपनी मस्ती में मस्त सी

बेपरवाह

स्वछन्द

अनभिज्ञ सी

अपनी सपनों की दुनिया में

खोई सी

अचानक रुकी

डरी, सहमी

भय से

विस्फरित आँखें

एक झटका सा लगा

और कदम वहीँ रुक गए

साहस जुटाया

पर धैर्य टूट गया

बचना चाहा

पर गिर पड़ी

साँसे बिखरने लगीं

शरीर बेज़ान होने लगा

पल भर में ही

सारी चंचलता, कोमलता

नष्ट हो गयी

न जुटा पायी साहस

उस दीर्घकाय परिंदे से

खुद को बचाने का।

अधीर / मुकुटधर पांडेय

यह स्निग्ध सुखद सुरभित समीर
कर रही आज मुझको अधीर
किस नील उदधि के कूलों से
अज्ञात वन्य किन फूलों से
इस नव प्रभात में लाती है,
जाने यह क्या वार्ता गंभीर,
प्राची में अरुणोदय अनूप
है दिखा रहा निज दिव्य रूप
लाली यह किसके अधरों की
लख जिसे मलिन नक्षत्र हीर?
विकसित सर में किंजल्कजाल
शोभित उन पर नीहार-माल
किस सदय बन्धु की आँखों में
है टपक पड़ा यह प्रेम नीर
प्रस्फुटित मल्लिका पुंज-पुंज
कमनीय माधवी कुंज-कुंज
पीकर कैसी मदिरा प्रमत्त
फिरती है निर्भय भ्रमर-भीर
यह प्रेमोत्फुल्ल पिकी प्रवीण
कर भाव-सिन्धु में आत्मलीन
मंजरित आम्र तरु में छिपकर
गाती है किसकी मधुर गीर,
है धरा बसन्तोत्सव-निमग्न
आनन्द निरत कलगान-लग्न
रह-रह मेरे ही अन्तर में
उठती यह कैसी आज पीर,

-हिन्दी काव्य संग्रह, सं. बालकृष्ण राव

अतृप्ति / चन्द्रकुंवर बर्त्वाल

अतृप्ति
(प्रेम का मार्मिक चित्रण)
देख कर भी रात-दिन में स्वर्ग सुन्दर
हिमालय से प्राण अपने भर न पाया
नयन में वह चारू-शोभा धर न पाया
धन्य वे जन एक बार उसे निहारा
औ दृगों में बस गया सौदर्य सारा
आमरण वहती रहे आनंद -धारा
किन्तु मैं प्रतिदिन हिमालय देख कर भी
सदा भूला ही नयन मंें धर न पाया।
(अतृप्ति कविता का अंश)

अतुल्य प्रेम / शिव कुमार झा 'टिल्लू'

माँ आटा गूंथ रही थी
जल्दी -जल्दी सेकनी थीं चपातियाँ
मंत्री जी को जिला मुख्यालय जाना था
शिक्षक संघ के मंत्री
बहुत स्नेह रखते हैं अपनी अर्धांगिनी से
बराबर चर्चायें होतीं थीं
माँ -चाचियों के बीच
जब सारी पूजनीया माताएँ
बखिया उधेरती थी अपने -अपने
पति के कर्मों का उनके उपहासों का
काश ! मेरे भी वो होते मंत्रीजी के जैसे
अद्भुत और अनन्य प्रेम
समझो अतुल्य प्रेम
करते है अपनी वामा से ..
मैं बाल, भला ! क्या समझता
लेकिन एक दिन देख लिया
अपनी आँखों से
पर उस समय समझा नहीं था
कथाकथित अतुल्य प्रेम की
गति यति और नियति को
उनका छोटा पुत्र प्रखर
था मेरा सहपाठी
रोज साथ -साथ विद्यालय जाना
उसदिन भी साथ ही करने गया था
मुझे देखकर रुकने का संकेतन देकर
चल दिया किचन में ...
कराही में सुवासित हो रही थी
फूलगोभी की मसालेदार सब्जियाँ
रहा नहीं गया बालक से
कराही में ही हाथ डाल दिया उसने
एक टुकड़ा मुँह में गया नहीं की !!!
थप्पड़ों की होने लगी बौछारें
उसके गाल और पीठ पर
क्षण में रक्त के छीटें
भींग गयीं कच्ची सतह
कुछ पड़े गूथें आटे पर भी
शोरगुल में रसोईघर पहुँच गए मंत्री जी
माँ की चूड़ियाँ खंडित होकर
बेधित कर दी थी उनकी कलाइयों को
अर्धांगिनी का रक्त
हो रहा था नष्ट
ऊपर से ताजे व्रण दर्द की आह !
नासूर बनकर चीड़ डाला ह्रदय
दाराभक्त मंत्री जी का
दर्द माँ को और तड़प पिता को
क्या कहना ?
क्षणभर में रक्तभ मन
काँपने लगा प्रियतम का तन
बेहिसाब करने लगे प्रहार
नन्हे पर हाथों से निडर होकर
उनके हाथों में नहीं थी जो चूड़ियाँ !
एक गलती के लिए कितने लोग देंगे सजा
वह भी कोई ख़ास नहीं
हाथ नहीं धोया था फिर क्यों छुआ?
ऐसी गलती ही क्यों करते हो
माँ को क्यों सताते हो ?
ना तुम करते गलतियाँ
ना फूटती चूड़ियाँ
और ना बहते रक्त!
कितने खून वह गए उनके
शर्म है तुम्हे
दुबली हो गयी है .. माँ!
भला इसका परवाह कहाँ?
लगातार मंत्रीजी बोलते गए
इसमे मेरी क्या गलती है ?
माँ के पास बेलन भी था
उन्होंने हाथ से क्यों मारा ?
इस नेनपन से माँ काँप उठी ..
भूल गयी दर्द
अपसोस हो रहा था उन्हें
आखिर बात को दबा देती
बाद में प्रखर को समझा देती
सम्हलकर बोझिल मन से चीख उठी
माँ -बेटे के बीच आपको नहीं आना था
मेरा दिया हुआ थप्पड़
तो क्षणभर में जायेगा यह भूल
मेरे हाथ में भी ना चुभे शूल
माँ -संतति का स्नेह ही ऐसा है !
लेकिन आप क्यों मारे
हमेशा हाथ नहीं उठाना चाहिए ...पिता को
कम होने लगता है डर..
रो रहे थे मंत्री जी दुःख था उन्हें
संतान को मारने का
लेकिन कहीं उससे भी ज्यादा
प्रियतम के विदीर्ण रक्त के छींटे ने
उनके गले में कर दिया शमन
स्नेहिल कफ्फ-पित्त और वायु का
खाँसकर बोले ..लेते आऊंगा बेदाना
माँ का नहीं कम होना चाहिए हीमोग्लोबिन
बेटे के लिए तो रसमाधुरी तीन
भरे डबडब नैनों से पर मुस्कुराते
दोनों का दुलार लिए ..
चला मेरे साथ शिक्षा मंदिर के राह प्रखर
उस समय तो नहीं समझा था
अब सोचता हूँ ऐसे होते हैं
गेह गहन .....और नेह अमर
"अतुल्य प्रेम'..और भाव प्रवर

अजीब आदमी हो जी! / केदारनाथ अग्रवाल

अजीब आदमी हो जी!
फजीहत
फजीहत कहते हो
फजीहत फाड़कर
मैदान में
नहीं उतरते हो
मायूस बैठे
मातम मनाते हो।
कुछ तो करो जी,
खाल की ही
खजड़ी बजाओ,
उछलो
कूदो
नाचो
गाओ
माहौल तो
जिंदगी जीने का
बनाओ
हँसो
और
हँसाओ।

रचनाकाल: ०६-०४-१९९१

अजीब अन्धेरा / जय गोस्वामी

वे इस बंगाल में ले आए हैं आज
एक अजीब अन्धेरा
जिन्होंने कहा था 'अन्धेरे को दूर भगाएंगे हम`
वही आज सारी रोशनी का लोप कर रहे हैं,
अन्धेरे के राजाओं के हाथ
सुपुर्द कर रहे हैं ज़मीन और चेतना-
'तेभागा` की स्मृतियों को दफ़न कर रहे हैं
कह रहे हैं 'जाओ, पूंजी के आगोश में जाओ`

नंदिनी अपने दोनों हाथों से
हटा रही है अन्धेरा, पुकारती-'रंजन कहाँ हो तुम!`
जितने रंजन हैं सभी घुसपैठिए, यह मान कर
जारी हुआ है वारंट
फिर भी वे आ खड़े हो रहे हैं
किसानों के कंधें से कंधा मिला कर
'तेभागा` के कंधें से कंधा मिला कर
उनकी प्रतिध्वनि जगा रही है संकल्प के पर्वत-सी मानसिकता,
विरोध चारों ओर, कोतवाल त्रस्त हैं

युद्ध के मैदान में रेखाएँ खींची जा चुकी हैं
तय कर लो तुम किधर जाओगे,
क्या तुम भी क़दम बढ़ाओगे व्यक्ति स्वार्थ की चहारदीवारी की ओर
जैसे पूंजी की चाकरी करनेवाले 'वाम` ने बढ़ाए हैं
या रहोगे मनुष्य के साथ
विभिन्न रंगों में रंगे सेवादासों ने
षड़यंत्रों के जो जाल बुने हैं
उन्हें नष्ट करते हुए
नये दिवस का, नये समाज का स्वप्न
देखना क्या नहीं चाहते तुम?

 
बांग्ला से अनुवाद : विश्वजीत सेन

अजीब / रंजना जायसवाल

जब मैंने तुम्हें पिता कहा
हँस पड़े तुम
मजाक मानकर
जबकि यह सच था
तब से आज तक का सच

जब पहली बार मिले थे हम
तुम्हारा कद ..चेहरा
बोली–बानी
रहन–सहन
सब कुछ अलग था पिता से
फिर भी जाने क्यों
तुम्हारी दृष्टि
हँसी
स्पर्श
और चिंता में
पिता दिखे मुझे

मेले में तुम्हारी अंगुली पकड़े
निश्चिन्त घूमती रही मैं
पूरी करवाती रही अपनी जिद
मचलती-रूठती
तुरत मान जाती रही
तुम निहाल भाव से
मुझे देखते और मुस्कराते रहे

मैंने यह कभी नहीं सोचा
कि क्या सोचते हो तुम मेरे बारे में
तुमने भी नहीं चाहा जानना
कि किस भाव से इतनी करीब हूँ मैं
आज जब तुमने कहा मुझे ‘प्रिया’
मैंने झटक दिया तुम्हारा हाथ
कि कैसे कर सकता है पिता
अपनी ही पुत्री से प्यार!

मैं आहत थी उस बच्ची की तरह
जिसने पढ़ लिया हो
पिता की आँखों में कुविचार
नाराज हो तुम भी
कि समवयस्क कैसे हो सकता है पिता
कर सकता है इतना प्यार
एक कल्पित रिश्ते को
निभा सकता है आजीवन
तुम जा रहे हो मुझसे दूर
मैं दुखी हूँ
तुम्हारा जाना पिता का जाना है
जैसे आना
पिता का आना था.

अजित के जन्म-दिन पर / हरिवंशराय बच्चन

आज तुम्हारा जन्म-दिवस है,
घड़ी-घड़ी बहता मधुरस है,
अजित हमारे, जियो-जियो!
अमलतास पर पीले-पीले,
गोल्ड-मुहर पर फूल फबीले,
आज तुम्हारा जन्म-दिवस है,
जगह-जगह रंगत है, रस है,
अजित दुलारे, जियो-जियो!
बागों में है बेला फूला,
लतरों पर चिड़ियों का झूला,
आज तुम्हारा जन्म-दिवस है,
मेरे घर में सुख-सरबस है,
नैन सितारे, जियो-जियो!
नये वर्ष में कदम बढ़ाओ,
पढ़ो-बढ़ो यश-कीर्ति कमाओ,
तुम सबके प्यारे बन जाओ,
जन्म-दिवस फिर-फिर से आए,
दुआ-बधाई सबकी लाए,
सबके प्यारे, जियो-जियो!

अजाना व्यक्तित्व / उमा अर्पिता

तुम्हें टोह लेने पर भी
मैं, तुम्हारे व्यक्तित्व की
आड़ी-तिरछी रेखाओं को
कोई रूप दे पाने में
असमर्थ रही हूँ...!
गत वर्ष की
धुआंधार बरसात में
हम दोनों
साथ-साथ भीगे थे,
पर आज--
उन्हीं भीगते संबंधों पर
टूटन की काई उग आयी है,
जिस पर से हम
निरंतर फिसलते जा रहे हैं,
हमारे हाथ
एक-दूसरे की पकड़ से
दूर/बहुत दूर
हो गये हैं/होते जा रहे हैं।
संबंधों की उकताहट को जीते हुए/
अंधाधुंध शिकायतों की
सीमायें लाँघते हुए
जब, पीछे मुड़ कर
अपना अतीत देखते हैं, तब
उन सूत्रों को ढूँढ़ना
असंभव हो जाता है,
जो हमें
अपराधी करार दे सकें।

अच्छा है कि मैं अकेली नहीं / इला कुमार

अच्छा है कि मैं अकेली नहीं
मेरे साथ हैं
चेतना के कुहरे में टिमटिमाते
नए पुराने कितने ही अक्स

चौखट के भीतर चुप बैठे माँ-पिता की बरसों पुरानी भंगिमा
तिमंजिले की मुण्डेर से झाँकते मौसेरे भाई-बहनों के चेहरे
चाचा-चाची, मामा-मामी, मौसी, बुआ और ममेरी फुफेरी बहनों की कथाएँ
अनगिनत क़िस्से मेरे साथ चलते हैं
जहाँ कहीं भी मैं गई
विभिन्न वजूदो के कण मेरे आगे-पीछे चले
उनके बीच घर के नौकर-नौकरानियों की अम्लान छवि

जाड़े की रातों में मालिश के तेल की कटोरी लिए
बिस्तर के बगल में बैठी दाई
शुरूआती कालेजी दिनों की सुबहों में
चाय के गर्म कप के लिए
रसोईघर में पण्डित से डाँट सुनता छोटा भाई
जाने अनजाने रस्तों पर ये सभी मेरे साथ चल पडते हैं

नव जागरित व्यक्तियों की जमात जब
अपने आसपास के लोगो की उपस्थिति को नकार
विदेशी अकेलेपन का स्वांग भरती है
स्वांग रचते-रचते अभिनेता स्वयं पात्र में परिवर्तित हो जाते हैं

विलायती उच्छिष्ट के दवाब तले थरथराती हुई
नई सदी की दहलीज पर उगे दीमको की बस्ती के बीच दिग्भ्रमित
मन दहल जाता है
यह कैसी विरासत

कितना अच्छा है
कि
मैं अकेली नहीं हूँ !!!

अच्छा ही है / उमा अर्पिता

जिंदगी अगर गर्म, कुनकुनी
धूप का हिस्सा होती, तो
कितना अच्छा होता!
तब चाहत की तितली
वक्त के कँटीले तारों में
उलझकर दम न तोड़ती!
अच्छा ही है कि
दिन चढ़ने से पहले ही
मेरी आँखों में
उतरने लगी है, शाम...

अच्छा लगा / कुंवर नारायण

पार्क में बैठा रहा कुछ देर तक
अच्छा लगा,
पेड़ की छाया का सुख
अच्छा लगा,
डाल से पत्ता गिरा- पत्ते का मन,
"अब चलूँ" सोचा,
तो यह अच्छा लगा...

अच्छा लगता है / केदारनाथ अग्रवाल

अच्छा लगता है
जब कोई
बच्चा खिल-खिल
हँसता है।
वैभव का विष
तुरत उतरता है।
जीने में
सचमुच जीने का
सुख मिलता है।

रचनाकाल: १७-०३-१९९१

अच्छा लगता है / पद्मजा शर्मा

मुझे अच्छा लगता है
दिल से हँसना-हँसाना
उसके चेहरे पर ख़ुशी लाना

मुझे अच्छा लगता है
उसको लिखना-पढ़ना उससे मिलना
मिलने से पहले
और तेजी से दिल का धड़कना

मुझे अच्छा लगता है
मिलने के दो दिन बाद ही सुनना
‘दो बरस हो गए, मिलो ना !’

मुझे अच्छा लगता है
उसका प्रेम में खिलना
धीरे-धीरे खुलना

मुझे अच्छा लगता है
उसका मुझे पलकों पे बिठाना
मुझे बताए बिना

मुझे अच्छा लगता है
उसके चरित्र बनाना
और उसीसे उनमें रंग भरवाना
मुझे अच्छा लगता है।

अच्छा लगता है / पवन कुमार मिश्र

अकेले में तुम्हारी याद आना
अच्छा लगता है,
तुम्ही से रूठना तुमको मनाना
अच्छा लगता है ।

धुन्धलकी शाम जब मुंडेर से
पर्दा गिराती है,
सुहानी रात अपनी लट बिखेरे,
पास आती है,
तुम्हारा चाँद सा यूँ छत पे आना,
अच्छा लगता है ।

फ़िज़ाओं में घुला रेशम नशीला
हो रहा मौसम,
ओढ़कर फूल का चादर सिमटती
जा रही शबनम,
हौले से तुम्हारा गुनगुनाना
अच्छा लगता है ।

अकेली बाग़ में बुलबुल बिलखती है
सुलगती है,
रूमानी चांदनी मुझपर घटा बनकर
पिघलती है,
तुम्हारा पास आना मुसकराना
अच्छा लगता है ।

अकेले में तुम्हारी याद आना
अच्छा लगता है ।


अच्छा लगता है / विमल राजस्थानी

दिन भर खट कर रात में सोना अच्छा लगता है
मा के हाथों बिछा बिछौना अच्छा लगता है
जिसने भी बंदूक बनायी उसका भला न हो
जंगल में चरता मृग-छौना अच्छा लगता है
भले बुढ़ापे में मत पूछे, ‘पायल’ ही पूजे
कंधों बैठा हुआ खिलौना अच्छा लगता है
घुटनों का छिल जाना, घोड़ा बनना, क्या दिन थे !
नन्हें घुड़सवार को ढोना अच्छा लगता है
चाँदी की थाली, सोने की चम्मच तुम्हीं रखो
संतोषी को पात को दोना अच्छा लगता है
कुर्सी पर लो तुम्हीं बिराजो, जाजिम मुझे भली
मुझको तो महफिल का कोना अच्छा लगता है
नमी जहाँ हो, बीज डाल दो, पौधा होगा ही
मुझ को मरू में आँसू बोना अच्छा लगता है
तुम अपने को ढूँढो जग की भूल-भुलैया में
मुझको तो बस खुद को खोना अच्छा लगता है
तुम्हें पराये लगते होंगे ये दुनियाँ वाले
मुझे न इक का, सबका होना अच्छा लगता है
तुम कन्नी काटो बूढ़ो से मुँह बिचका-बिचका
मुझको उनकी सुई पिरोना अच्छा लगता है
चाहे जितना नालायक हो, घर बर्बाद करे
फिर भी मा को ‘पूतमरौना’ अच्छा लगता है

अतीत की चुभन / धूप के गुनगुने अहसास / उमा अर्पिता

अतीत की यादों के
टूटे काँच को
मैं
दूर/बहुत दूर
फेंक चुकी थी, पर
अब भी जब मैं
नये खूबसूरत
ख्यालों/ख्वाबों को
चुनने लगती हूँ, तो
पुरानी/बिखरी यादों की
कोई किरच
हथेलियों में चुभ जाती है
और रिसते खून से
रंग उठता है मेरा वर्तमान।

अठारहवीं किरण / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

हम सुख किसको कहते हैं?
तुम दिखा निर्झरों की झर्-झर्
सरिताओं का मृदु कल-कल स्वर
सुरभित समीर की सर्-सर्-सर्
कहते-‘सुख से बहते हैं।
इसको हीसुख कहते हैं॥’
तुम दिखा पुष्प का मृदुल हास
अस्फुट कलिका का नव विकास
नभ के तारों का मौन हास
कहते-‘सुख से खिलते हैं।
इसको ही सुख कहते हैं॥’
जिनकी वैभव-आभा अनन्त
ऐश्वर्य-पूर्ण, सुरभित दिग्-दिगन्त
क्या वे सुख से रहते हैं?
इसको ही सुख कहते हैं?

मैं समझ न पाया सुषुमामय
जीवन-गायन की वह मृदु लय
जिसमें मानव हो मुक्त हृदय
आनन्द-नृत्य करते हैं।
सुख का अनुभव करते हैं॥
संकुचित स्वार्थ से जो ऊपर
उठ गए विश्व के हित भूपर
जिनको न आत्म-चिन्ता क्षण-भर
वे ही सुख से रहते हैं।
इसको ही सुख कहते हैं॥
जो आर्त-पीड़ितों के ऊपर
कर देते जीवन न्यौछावर
सेवा का जिनमें भाव अमर
वे ही सुख से रहते हैं।
इसको ही सुख कहते हैं॥

अटल / माखनलाल चतुर्वेदी

हटा न सकता हृदय-देश से तुझे मूर्खतापूर्ण प्रबोध,
हटा न सकता पगडंडी से उन हिंसक पशुओं का क्रोध,
होगा कठिन विरोध करूँगा मैं निश्वय-निष्क्रिय-प्रतिरोध
तोड़ पहाड़ों को लाऊँगा उस टूटी कुटिया का बोध।
चूकेंगें आगे आने पर सारे दाँव विधाता के,
धोऊँगा पद-कंज आँसुओं से मैं जीवन-दाता के।

रचनाकाल: प्रताप प्रेस, कानपुर-१९१९

अटल है खण्डहर / मदन गोपाल लढ़ा

पहली बार
जब मैंने
रचा था एक घर
मैं महज पाँच वर्ष का था।

गीली मिट्टी को
नन्हे हाथों से
पगथली के चारों तरफ थापकर
कितने जतन से
किया था मैंने
वह अद्भुत सृजन
बहुत खुश हुआ था मैं।

घरौंदा होगा तुम्हारे लिए
मेरे लिए तो वह
किसी महल से कम नहीं था
जिसके खण्डहर
आज भी अटल खड़े हैं
मेरी स्मृतियों के आँगन में।

वक्त के पहिए के साथ
कितना घूमा हूँ मैं
कितना तड़पा हूँ
पर एक घर तो दूर
घरौंदा भी नहीं रच पाया।

अज्ञात क्राँतिवीर का शिलालेख / बर्तोल ब्रेख्त

क्राँति का
अज्ञात वीर मारा गया
मैंने उसका शिलालेख
सपने में देखा
वह कीचड़ में पड़ा था

दो शिलांश थे
उन पर कुछ नहीं लिखा था
पर उनमें से एक कहने लगा-

जो यहां सोया है
वह दूसरे की धरती को
जीतने नहीं जा रहा था
वह जा रहा था
अपनी ही धरती को मुक्त करने

उसका नाम कोई नहीं जानता
पर इतिहास की पुस्तकों में
उनके नाम हैं
जिन्होंने उसे मिटा दिया

वह मनुष्य की तरह जीना चाहता था
इसीलिए एक जंगली जानवर की तरह
उसे जिबह कर दिया गया

उसने कुछ कहा था
फँसी-फँसी आवाज़ में
मरने से पहले
क्योंकि उसका गला रेता हुआ था

पर ठंडी हवाओं ने उन्हें चारों ओर फैला दिया
उन हज़ारों लोगों तक
जो ठंड से जकड़े हुए थे।


अंग्रेज़ी से अनुवाद : रामकृष्ण पांडेय

अजेय ही अड़े रहो / केदारनाथ अग्रवाल

मेरे तन तने रहो
आँधी में-आह में
दृढ़-से-दृढ़ बने रहो
शाप से प्रताड़ित भी
व्यंग्य से विदारित भी
मेरे तन खड़े रहो
आफत में आँच से
अजेय ही अड़े रहो

रचनाकाल: ०१-०९-१९५६

अजेय लेखनी / बर्तोल ब्रेख्त

युद्ध के दौरान
सैन कार्लो के इतालवीं जेल की सेल में
जिसमें बन्दी सैनिक, नशेड़ी और चोर भरे थे
एक समाजवादी सैनिक ने, मिट न सकने वाली पेन्सिल से, दीवार पर खुरच दिया
लेनिन दीर्घजीवी हों !
ऊँचाई पर, उस नीम-अंधेरे सेल में, बमुश्किल दिखे, लेकिन
बड़े अक्षरों में लिखा था ।
वार्डन ने देखते ही, एक बालटी चूने के साथ उसे पोत डालने के लिये आदमी भेज दिया ।
और उसने एक लम्बी लकड़ी से बंधी कूँची से उस डरावने लेखन पर चूना पोत दिया
लेकिन, चूँकि उसने सिर्फ अक्षरों पर चूना पोता था
अब वह सेल में ऊँचा, सफ़ेद चमकने लगा
लेनिन दीर्घजीवी हो !
फिर एक और रंग करने वाले ने बड़े-से ब्रश से उस पूरी पट्टी को पोत डाला
कई घण्टों तक वह छुपा रह, लेकिन सुबह होते-होते
जैसे ही चूना सूखा, उसके नीचे लिखे अक्षर फिर साफ़-साफ़ दिखाई देने लगे
लेनिन दीर्घजीवी हों !
तब वार्डन ने उन अक्षरों को खोद देने के लिए छैनी के साथ राजमिस्त्री भेजा
घण्टे भर में उसने एक-एक अक्षर खोद डाला
अब वह बेरंग, लेकिन दीवाल पर उतनी ही ऊँची
गहराई तक खुदी, अजेय लेखनी बन गया :
लेनिन दीर्घजीवी हो !
तब, सैनिक ने वार्डन से कहा -- ढहा दो इस दीवार को !

(1934)
(यह कविता 1917 में बन्दी बनाए गए सैनिक जियोवनी जर्मनेटो द्वारा 1930 में उसकी रिहाई के बाद ज्यूरिख के एक अख़बार को बताई गई सच्ची घटना पर आधारित है)

अजेय की माँ बीमार है / रति सक्सेना

अजेय की माँ बीमार है
माँ की आँखों की धुँधलाहट
अजेय की आँखों में उतर आई है
माँ की नसों की कँपकपाहट
अजेय की नसों को झनझना देती है

माँ बीमार है, अजेय नहीं
फिर भी ,
अजेय का रंग फीका पटता जा रहा है
उसकी कविता में गाँठे पड़ती जा रही हैं

अजेय की माँ बीमार हैं
मैं सोचने लगती हूँ
पाँच बेटियों की माँ के बारे में
जिसके कूल्हों के ऊपर के घाव सड़ते जा रहे हैं
जिसके हाथ गाजर से लटक रहे हैं
जिसे पुकारों "माँ"
तो वह मुँह खोल देती है
चिड़िया के बच्चे सा
जिसकी आँखों से सारे रिश्ते- नाते धुँधला गए हैं

हालाँकि उन पाँच बेटियों को
याद नही माँ के जिस्म की गरमाहट, या दूध का स्वाद
याद नहीं हैं छाती की कसाहट
फिर भी उन्हें याद है
दिन- दिन भर सब्जी काटती
चूल्हे पर उबलती माँ
वे याद करती हैं
झल्लाती हुई शादी की तैयारी में
दिन- रात एक करती माँ
अकाल कलवित बेटे के अभाव में
भगवान से सीधे- सीधे
मोक्ष का शार्टकट माँगती माँ
बेटियाँ सोचती हैं
क्या माँगे भगवान से, माँ के लिए
मुक्ति या फिर जिन्दगी

बेटियाँ जानती हैं
मुक्ति का अर्थ, उनकी सलेट से
माँ शब्द का मिट जाना
लेकिन जिन्दगी ?

अजेय की माँ
दुनिया की माँ तो नहीं, फिर भी
जब वह बीमार है तो
मुझे याद आती है, पाँच बेटियों की माँ
उनका लोथड़े सा जिस्म, उनकी
गन्ध दुर्गन्ध

अजेय की माँ बीमार हैं
पाँच बेटियों की माँ के साथ
जो कर रही हैं कामना मुक्ति की
अपनी माँ के साथ

अजूबा / प्रमोद कुमार शर्मा


यह जो ब्रह्मराक्षस है मेरे भीतर एक
इसके आस-पास ही तो घुमती है मेरी प्रज्ञा
क्या छुपा है इसमें
सवेरे का सूरज?
पक्षियों का संगीत?
मनुष्यों की अभीप्सा ?
या नारायण की मर्जी?
जो भी हो यह ब्रह्मराक्षस ही है मेरी नियति
सोचता हूँ जब ब्रह्म ने रचा होगा इसे
तब जरा भी शंका नहीं हुई उसे इस पर!
कितनों को ही यह अपने नागपाश में बांधकर
नचा रहा है उन्हें अपने फन पर।
ढूंढता हुआ अपने समय का सौंदर्य महान
हाय! मैं भी हुआ मुग्ध इस पर।
जो कि मिल ही जाता है फिर कहीं आस-पास
घूमता-फिरता, उठता-बैठता, जागता-सोता
करता अकेला ही हतप्रभ अपने करतब से
मेरी आत्मा में बन जाता है प्रश्न कोई नया
मैं हो जाता हूँ मूक
करता हूँ प्रतीक्षा लम्बी
इसके फिर से आविष्कृत होने की।

अतिरिक्त समझकर क्या होगा / रश्मि प्रभा

जब धर्म का नाश तब 'मैं'
मैं यानि आत्मा
अमरता वहाँ जहाँ देवत्व
देवत्वता यानि सूक्ष्मता
सूक्ष्मता - कृष्ण
कृष्ण - सत्य
.....
खोज तो तुम रहे हो
कौन यशोदा , कौन राधा
राधा तो फिर रुक्मिणी क्यूँ
देवकी को क्या मिला
चिंतन तुम्हारा
उत्तर तुम्हारा
युगों का संताप तुम्हारा
....
गीता के शब्दों की व्याख्या
कौन करेगा ...
अपने अपने मन की व्याख्या असंभव है
तो गीता तो सूक्ष्म सार है
.... सूक्ष्म को व्याख्या नहीं चाहिए
वह है , रहेगा
जब जो उसे खुद में ले ले ...
सबकुछ खुला है -
जन्म लेना है
जाना है
प्रकाश दोनों तरफ है
मध्य में उसे बांटना है
बांटा तो गीता का सार
समेटना चाहा तो भटकाव ...
..... कृष्ण को अतिरिक्त समझकर क्या होगा
कथन से कथन निकालकर क्या होगा
वह जो था
वह है
वही रहेगा .......

अतिरिक्त ज़िम्मेदारी / लीलाधर जगूड़ी

जब-जब मैं मरता हूँ

बताया जाता है
न मेरे भीतर रहने वाला आत्मा मरता है न परमात्मा
तब फिर मैं कैसे मरता हूँ?

इसी से मैं समझा कि जब दण्डित होता हूँ
तो मेरे भीतर रहने वाला ईश्वर कतई दण्डित नहीं होता होगा

जितनी बार टूटता-फूटता हूँ
मेरे भीतर रहने वाला ईश्वर खंडित नहीं होता होगा

जब मेरी पोल खुलती है
तो भीतर रहने वाले ईश्वर की पोल नहीं खुलती होगी

मतलब कि इतना बेफ़िक्र और बेअसर होकर जिओ
कि ख़ुद ही अपना ईश्वर कहलाने लगूँ

अपनी पूरी ज़िम्मेदारी तो संभलती नहीं
फिर अपना ईश्वर होने की अतिरिक्त ज़िम्मेदारी कैसे संभलेगी ?

अतिरिक्त / राग तेलंग

यहाँ कुछ भी अतिरिक्त नहीं है
जिनके एक से अधिक बच्चे हैं
वे पहले से ज़्यादा प्यार की बदौलत हैं

इसलिये ज़रूरी है
हरेक उसको सहेजा जाये
जो अतिरिक्त नहीं है

यहाँ मामूली से मामूली चीज़ों के होने का
कुछ न कुछ मतलब है

बहुत मतलब है
एक अदना सी चींटी के होने का
कि उसके होने से पता चलता है
जीवन में
मिठास की खोज
कभी ख़त्म नहीं होती और
करेले का अस्तित्व बताता है
मीठे की अधिकता से
मारा जा सकता है मनुष्य

हरेक अपने होने की
सार्थकता की ओर इशारा कर रहा है
उसे समझो !

समझो रेत के उस छोटे कण की महत्ता
जो तुम्हारी आँख में इस तरह घुस सकता है कि
वह चट्टान की तरह लगे
जो तुम्हारी बहुमंज़िला इमारत में है जड़ा हुआ
जिसने कितने तो नदियों-समुद्रों के साथ यात्रा की
तुम्हारी उम्र से भी ज़्यादा समय तक

समझो हवा की वज़ह से
फटे केलेण्डर में जड़ी उस एक तारीख़ की हैसियत
जो एक दिन हवा का रुख़ बदल सकती है

क्षितिज में बिन्दु सा दीख रहा वह परिन्दा
जब ज़मीन पर आकर अपने पंख साफ़ करने बैठेगा
तब देखना उसकी आंखों में
कि हवा और आसमान को पढ़ने का हुनर
और तराशा जा चुका है

यहाँ एक-एक बात का मतलब है
यहाँ कुछ भी फालतू नही है

नहीं है खेलते हुए
हर नन्हे कदम की कोई भी हरकत बेमानी
न ही उन्हें निहारते बुज़ुर्गो के होंठों की मुस्कराहट और
न ही गर्भ में पलते शिशु की धड़कनों को महसूस करती
उस माँ के सीने का
एक भी उतार-चढ़ाव

यहां हरेक का कुछ न कुछ मतलब है
एक लम्हा भी अतिरिक्त नहीं किसी के पास

ठीक वैसे ही
जैसे इस कविता में एक भी शब्द ।

अतिरंजन की भूमिका / नीरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती

अब जो भी कुछ जाता है... चला ही जाता है।
स्मृति की डाल से खिरता है जो कुछ
हमेशा के लिए खिर जाता है।
अब सारे सवाल
केवल एक सहज उत्तर में
ख़ुश हो जाना चाहते हैं।
लेकिन वह ‘सिर्फ़ एक उत्तर नहीं मिलता।

बचपन के साथियो!
अब तुम लोगों के चेहरे
काँच की ओट से धुँधले दिखाई देते हैं।
अब पीछे मुड़कर भीख माँगने की मुद्रा में
सहसा हाथ पसारने पर
किसी को आश्चर्य नहीं होता।
चिड़िया पकड़ने के लिए
छत की मुण्डेर से किसने छलाँग लगाई थी?
जिसके लिए एक दिन
भीतर भयानक उथल-पुथल मची हुई थी
आज उसकी याद भी नहीं आती।

अब जो कुछ भी झरता है ... हमेशा के लिए झर जाता है
अब जो भी कुछ जाता है, चला ही जाता है,
अब सारे कमरों को नए सिरे से रँगना पड़ेगा!

मूल बांग्ला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी

अतिम पैगम्बर / सुमित्रानंदन पंत

दूर दूर तक केवल सिकता, मृत्यु नास्ति सूनापन!—
जहाँ ह्रिंस बर्बर अरबों का रण जर्जर था जीवन!
ऊष्मा झंझा बरसाते थे अग्नि बालुका के कण,
उस मरुस्थल में आप ज्योति निर्झर से उतरे पावन!

वर्ग जातियों में विभक्त बद्दू औ’ शेख निरंतर
रक्तधार से रँगते रहते थे रेती कट मर कर!
मद अधीर ऊँटों की गति से प्रेरित प्रिय छंदों पर
गीत गुनगुनाते थे जन निर्जन को स्वप्नों से भर!

वहाँ उच्च कुल में जन्मे तुम दीन कुरेशी के घर
बने गड़रिए, तुम्हें जान प्रभु, भेड़ नवाती थी सर!
हँस उठती थी हरित दूब मरु में प्रिय पदतल छूकर
प्रथित ख़ादिजा के स्वामी तुम बने तरुण चिर सुंदर!

छोड़ विभव घर द्वार एक दिन अति उद्वेलित अंतर
हिरा शैल पर चले गए तुम प्रभु की आज्ञा सिर धर
दिव्य प्रेरणा से निःसृत हो जहाँ ज्योति विगलित स्वर
जगी ईश वाणी क़ुरान चिर तपन पूत उर भीतर!

घेर तीन सौ साठ बुतों से काबा को, प्रति वत्सर
भेज कारवाँ, करते थे व्यापार कुरेश धनेश्वर
उस मक्का की जन्मभूमि में, निर्वासित भी होकर
किया प्रतिष्ठित फिर से तुमने अब्राहम का ईश्वर!

ज्योति शब्द विधुत् असि लेकर तुम अंतिम पैग़म्बर
ईश्वरीय जन सत्ता स्थापित करने आए भू पर!
नबी, दूरदर्शी शासक नीतिज्ञ सैन्य नायक वर
धर्म केतु, विश्वास हेतु तुम पर जन हुए निछावर!

अल्ला एक मात्र है इश्वर और रसूल मोहम्मद’
घोषित तुमने किया तड़ित असि चमका मिटा अहम्मद!
ईश्वर पर विश्वास प्रार्थना दास—संत की संपद,
शाति धाम इस्लाम जीव प्रति प्रेम स्वर्ग जीवन नद।

जाति व्यर्थ हैं सब समान हैं मनुज, ईश के अनुचर,
अविश्वास औ’ वर्ग भेद से है जिहाद श्रेयस्कर!
दुर्बल मानव, पर रहीम ईश्वर चिर करुणा सागर,
ईश्वरीय एकता चाहता है इस्लाम धरा पर!

प्रकृति जीव ही को जीवन की मान इकाई निश्वित
प्राणों का विश्वास पंथ कर तुमने पभु का निर्मित।
व्यक्ति चेतना के बदले कर जाति चेतना विकसित
जीवन सुख का स्वर्ग किया अंतरतम नभ में स्थापित।

आत्मा का विश्लेषण कर या दर्शन का संश्लेषण,
भाव बुद्धि के सोपानों मे बिलमाए न हृदय मन।
कर्म प्रेरणा स्फुरित शब्द से जन मन का कर शासन
ऊर्ध्व गमन के बदले समतल गमन बताया साधन!

स्वर्ग दूत जबरील तुम्हारा बन मानस पथ दर्शक
तुम्हें सुझाता रहा मार्ग जन मंगल का निष्कंटक।
तर्कों वादों और बुतों के दासों को, जन रक्षक
प्राणों का जीवन पथ तुमने दिखलाया आकर्षक!

एक रात में मृत मरु को कर तुमने जीवन चेतन
पृथ्वी को ही प्रभु के शब्दों को कर दिया समर्पण।
‘मैं भी अन्य जनों सा हूँ!’ कह रह सबसे साधारण
पावन तुम कर गए धरा को, धर्म तंत्र कर रोपण।

अच्छे दिन / एकांत श्रीवास्तव

अच्‍छे दिन खरगोश हैं
लौटेंगे
हरी दूब पर
उछलते-कूदते
और हम
गोद में लेकर
उन्‍हें प्‍यार करेंगे
अच्‍छे दिन पक्षी हैं
उतरेंगे
हरे पेड़ों की
सबसे ऊँची फुनगियों पर
और हम
बहेलिये के जाल से
उन्‍हें सचेत करेंगे
अच्‍छे दिन दोस्‍त हैं
मिलेंगे
यात्रा के किसी मोड़ पर
और हम
उनसे कभी न बिछुड़ने का
वादा करेंगे।

अच्छी हो सुबह तुम / नरेश अग्रवाल

चलो आज इतने हो जाएँ निर्भीक
निकलें रात में सैर करने
चारों तरह सन्नाटा है राज करता हुआ
और मेरे कदमों की आहट
तोड़ती हुई उसके घमंड को
लेकिन जाएँ तो जाएँ कहाँ
कोई काम नहीं, कोई मकसद नहीं
आज हल्की सी भी ओस नहीं
न ही कहीं कुहासा आँखों को रोकता हुआ
सब कुछ साफ-साफ खुले आकाश में
और फिर भी खुश नहीं
उदास हूँ, कुछ भी नहीं चाहिए मुझे
न ही किसी का इंतजार
जल्दी ही ऊब जाता है मन
चलो वापस चलें
शरीर इतना बड़ा अजगार
देर तक माँगता है आराम।
सुबह अच्छी हो तुम
हमेशा रहता है तुम्हारा इंतजार।

अच्छी बुद्धि / दिविक रमेश

छिः चिड़िया, छिः गैया कैसी
रोज़ रोज़ नंगी ही रहतीं।
सोचे मुनिया बॆठी बॆठी
मम्मी इनकी कुछ न कहतीं?

जहां तहां गोबर कर देती
लाज गाय को कब है आती
चिड़िया भी ऐसी ही होती
बाथरूम में कभी न जाती।

आखिर पापा से ही पूछा
पापा ने यह बात बताई
बेटी इनको हम जैसी तो
अच्छी बुद्धि मिल ना पाई।

अच्छी पत्नी / पल्लवी मिश्रा

मैं अच्छी पत्नी नहीं हूँ
क्योंकि-
पति के दफ्तर से लौटने पर
अपने हाथों से चाय नहीं बना पाती हूँ
क्योंकि,
मैं स्वयं कॉलेज जाती हूँ
और थक जाती हूँ।

मैं अच्छी पत्नी नहीं हूँ
क्योंकि-
पढ़ी-लिखी हूँ
अपने अधिकारों का मुझे ज्ञान है
खूबसूरत हूँ, बुद्धिमती हूँ
और इसका मुझे अच्छी तरह भान है।

मैं अच्छी पत्नी नहीं हूँ
क्योंकि-
पति को परमेश्वर नहीं मानती हूँ
कारण-
उसकी मानव सुलभ कमजोरियों को
खूब पहचानती हूँ।

मैं अच्छी पत्नी नहीं हूँ
क्योंकि-
मैंने परम्पराओं को तोड़ा है
अपने नाम के साथ आज तक
पति का सरनेम नहीं जोड़ा है।

मैं अच्छी पत्नी नहीं हूँ
क्योंकि-
पति के लिए निर्जल उपवास नहीं रखती हूँ
पति से प्यार तो करती हूँ
परन्तु एक पक्षीय नियमों पर
विश्वास नहीं करती हूँ।

मैं अच्छी पत्नी नहीं हूँ
क्योंकि-
नौकरों के रहने पर
रसोई में नहीं जाती हूँ,
बल्कि
किताबें पढ़ने में वक्त बिताती हूँ।

मैं अच्छी पत्नी नहीं हूँ
क्योंकि-
सासु माँ से
अचार व मुरब्बे बनाना नहीं सीखती हूँ
बल्कि
खाली समय में कविताएँ लिखती हूँ।

अच्छी किताब / देवमणि पांडेय

एक अच्छी किताब अन्धेरी रात में
नदी के उस पार किसी दहलीज़ पर
टिमटिमाते दीपक की ज्योति है
दिल के उदास काग़ज़ पर
भावनाओं का झिलमिलाता मोती है
जहाँ लफ़्ज़ों में चाहत के सुर बजते है

ये वो साज़ है
इसे तनहाइयों में पढ़ो
ये खामोशी की आवाज़ है
एक बेहतर किताब हमारे जज़्बात में

उम्मीद की तरह घुलकर
कभी हँसाती, कभी रुलाती है
रिश्तों के मेलों में बरसों पहले बिछड़े
मासूम बचपन से मिलाती है
एक संजीदा किताब
हमारे सब्र को आज़माती है

किताब को ग़ौर से पढ़ो
इसके हर पन्ने पर
ज़िन्दगी मुस्कराती है

अच्छी खबर / दिनेश कुमार शुक्ल

कभी-कभी अच्छी ख़बरें भी आ जाती हैं
जैसे अब भी
कभी-कभी तुम आ जाती हो
अपनी छत पर

गली गैर की दूर मुहल्ला
नहीं पतंगों का ये मौसम
अपने संग पढ़ने वाले अब
हिन्दू हैं या मुसलमान हैं

लेकिन इतना तो है अब भी
कभी-कभी तुम आ जाती हो
अपनी छत पर

अच्छी कविताओं का हश्र / मनोज श्रीवास्तव

अच्छी कविताओं का हश्र



वह अच्छी कवितायेँ लिखता था
क्योंकि
वह सार्वजनिक स्थानों पर
कास्मेटिक वस्तुओं की
विज्ञापन करने वाली
माडल युवतियों से
घिरा रहता था.

अच्छी कविता की ज़रूरत / नील कमल

काँपते से हाथ, शंकित हैं
मासूम खिलखिलाहटों के भविष्य के प्रश्न पर
सफ़ेद होते बाल व्यथित हैं
अपनी नस्लों की सुरक्षा के सवाल पर
और पूरी दुनिया चिंतित है
मानवता के सरोकारों से

लिखते हैं गुलाबी ख़त पर
लाल चूड़ियों वाले खनखनाते हाथ
दुनिया को दुनिया बनाए रखने के लिए
एक अच्छी कविता की ज़रूरत है

वह जोड़ सकती थी मेरे-तुम्हारे अतीत
बन सकती थी सागर-सेतु
वह ढ़ाई आखर के तिलिस्म में
कहीं गुम-सी है, ढूँढ़ती साँसों का बसंत
सहेजती रिश्तों का शरद-काल

वह प्राणों के तार पर फेरती है अँगुलियाँ
फूटता है राग, प्यार को प्यार बनाए रखने के लिए
एक अच्छी कविता की ज़रूरत है

एकात्म होने लगते हैं स्मृति के अक्षर,
माथे की सिलवटों के साथ

कह जाती है, प्रेरणा उत्तप्त कानों में
जीवन को जीवन बनाए रखने के लिए
एक अच्छी कविता की ज़रूरत है ।

अच्छी कविता की गुंजाइश / प्रियदर्शन

कविगण,
सही है कि यह वक़्त आपका नहीं,
लेकिन इतना बुरा भी नहीं
जिसे आप इस क़दर संदेह और नफ़रत से देखें
इस वक़्त बहुत सारे नामालूम से प्रतिरोध गुत्थम-गुत्था हैं
सदियों से चले आ रहे जाने-पहचाने अन्यायों से
यह वक़्त हैवानियत को कहीं ज़्यादा साफ़ ढंग से पहचानता है
यह अलग बात है कि हाथ मिलाने को मजबूर है उससे
सही है कि देह अब भी सह रही है चाबुक का प्रहार
लेकिन पीठ पर नहीं चेहरे पर
यह ज़्यादा क्रूर दृश्य है
लेकिन ये भी क्या कम है कि दोनों अब आमने-सामने हैं
एक-दूसरे से मिला रहे हैं आंख
सही है कि वक़्त ने निकाली हैं कई नई युक्तियां
और शासकों ने पहन ली हैं नई पोशाकें
जो बाज़ार सिल रहा है नई-नई
उन्हें लुभावने ढंग से पेश करने के लिए

फिर भी कई कोने हैं
कई सभाएं
कई थकी हुई आवाज़ें
कई थमे हुए भरोसे
कई न ख़त्म होने वाली लड़ाइयां
जिनमें बची हुई है एक अच्छी कविता की गुंजाइश

अजीव का पहरा / पारुल पुखराज

एक चित्त के उजाले पर
गिर रहा
उजाला दूजे चित्त का

एक लोक पर
छाया
दूजे लोक की

नींद पर जीव की, अजीव का पहरा

उच्चारता अजानी दिशा में
नाम मेरा
मेरे पूर्वजों का

न जाने
कौन

चेतना
बंधी गाय
रंभा रही

अतीत / समझदार किसिम के लोग / लालित्य ललित

तुम
पहले-से नहीं रहे
वक्त ने बदल दी
तुम्हारी परिभाषा
तुम्हारा भूगोल
और
मैंने अब इतिहास पढ़ना
छोड़ दिया
वर्तमान में हूँ
तो दुहराव क्यों
मैं
खुद
इतिहास हो रही हूँ
कुतुब मीनार ने
खड़े-खड़े
यूं ही
अपने आपसे
सवाल किया

अच्छे दिनों में क्या सब कुछ अच्छा होगा / कृष्ण कल्पित

अच्छे दिनों में क्या सब कुछ अच्छा होगा

जितने भी बुरे कवि हैं
वे क्या अच्छे दिनों में अच्छे कवि हो जाएँगे

क्या हत्यारे अच्छे हत्यारे पुकारे जाएँगे

क्या डाकू भी सुल्ताना डाकू जैसे अच्छे और नेक होंगे

क्या वेश्याओं को गणिकाएँ कहा जाएगा अच्छे दिनों में

जिसका भी गला रेता जाएगा
अच्छे से रेता जाएगा अच्छे दिनों में

बुरे भी अच्छे हो जाएँगे अच्छे दिनों में

आएँगे
ज़रूर आएँगे अच्छे दिन
किसी दिन वे धड़ाम से गिरेंगे आकर !

अच्छे दिन आने वाले हैं / अंजू शर्मा

बेमौसम बरसात का असर है
या आँधी के थपेड़ों की दहशत
उसकी उदासी के मंजर दिल कचोटते हैं
मेरे घर के सामने का वह पेड़
जिसकी उम्र और इस देश के संविधान की
उम्र में कोई फर्क नहीं है
आज खौफजदा है

मायूसी से देखता है लगातार
झड़ते पत्तों को
छाँट दी गई उन बाँहों को जो एक पड़ोसी
की बालकनी में जबरन घुसपैठ की
दोषी पाई गईं

नहीं यह महज खब्त नहीं है
कि मैं इस पेड़ की आँखों में छिपे डर को
कुछ कुछ पहचानने लगी हूँ
उसका अनकहा सुनने लगी हूँ
कुल्हाड़ियों से निकली उसकी कराह से सिहरने लगी हूँ

कुल्हाड़ियों का होना
उसके लिए जीवन में भय का होना है
तलवार की धार पर टँगे समय की चीत्कार
का होना है
नाशुक्रे लोगों की मेहरबानियों का होना है

मैं उसकी आँखों में देखना चाहती हूँ
नए पत्तों का सपना
सुनना चाहती हूँ बचे पत्तों की
सरसराहट से निकला स्वागत गान
मैं उसके कानों में फूँक देना चाहती हूँ
अच्छे दिनों के आने का संदेश

ये कवायद है खून सने हाथों से बचते हुए
आशाओं के सिरे तलाशने की
उम्मीदों से भरी छलनी के रीत जाने पर भी
मंगल गीत गाने की
परोसे गए छप्पनभोग के स्वाद को
कंकड़ के साथ महसूसने की
मुखौटा ओढ़े काल की आहट को अनसुना करने की
बेघर परिंदो और बदहवास गिलहरियों की चिचियाहट
पर कान बंद कर लेने की

कैसा समय है
कि वह एक मुस्कान के आने पर
घिर जाता है अपराधबोध में
मान क्यों नहीं लेता
कि अच्छे दिन बस आने ही वाले हैं...

अच्छे दिन आने वाले हैं / पवन करण

गुजरात की तर्ज पर सबको सबक सिखाने की
इच्छा रखने और पूरे देश को गुजरात बनाने का
सपना देखने वालों के अच्छे दिन आने वाले हैं

पाँच हज़ार साल पहले से चलकर
बरास्ते उन्नीस सौ बानवे, दो हज़ार बारह तक
आने वालों के अच्छे दिन आने वाले हैं

सिर पर मैला ढोने को आध्यात्मिक अनुभव कहने
और प्रजातन्त्र में राजपुरूष की तरह ख़ुद को
ईश्वर का दूत बताने वालों के अच्छे दिन आने वाले हैं

सत्रह बार सोमनाथ को लुटते देखने और एक बार भी
लूटने वालों से न भिड़ने मगर अब बदले पर उतारू
दिखने वालों के अच्छे दिन आने वाले हैं

उनके अच्छे दिन आने वाले हैं
हम उनके अच्छे दिन लाने वाले हैं ।

अछूत / प्रेमशंकर

अछूत
एक बिफरा हुआ घोड़ा है
जिसे तुम
अपने स्वार्थ के लिए
सुविधाओं की लगाम
प्रताड़ना की सैंटी
और
सुविधाओं के चारे से
सदैव साधते रहे हो!

अट नहीं रही है / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

अट नहीं रही है
आभा फागुन की तन
सट नहीं रही है।

कहीं साँस लेते हो,
घर-घर भर देते हो,
उड़ने को नभ में तुम
पर-पर कर देते हो,
आँख हटाता हूँ तो
हट नहीं रही है।

पत्‍तों से लदी डाल
कहीं हरी, कहीं लाल,
कहीं पड़ी है उर में,
मंद - गंध-पुष्‍प माल,
पाट-पाट शोभा-श्री
पट नहीं रही है।

अच्छे भाग वाला मैं / सुरेश सेन नि‍शांत

अच्छे भाग वाला हूँ मैं
इतना बारूद फटने के बाद भी
खिल रहे हैं फूल
चहचहा रही हैं चिड़ियाँ
बचा है धरती पर हरापन
सौंधी ख़ुशबू

अभी भी नुक्कड़ों पे
खेले जा रहे हैं ऐसे नाटक
कि उड़ जाती है तानाशाह की नींद

बचा है हौंसला
आतताइयों से लड़ने का
इतने खौफ़ के बावजूद भी
गूँगे नहीं हुए हैं लोग

बहुत भागवाला हूँ मैं
बाज़ारवाद के इस शोर में भी
कम नहीं हुआ है भरोसा दोस्त
कवियों का
जीवन पर से

अभी भी
उन लोगों के पास
दूजों का दुख सुनने के लिए
है ढेर सारा वक़्त

अभी भी है
उनके दिल की झोली में
सान्त्वना के मीठे बोल
द्रवित होने के लिए
बचे हैं आँसू
कुंद नहीं हुई है
इस जीवन की धार
बहुत ख़ुशक़िस्मत हूँ मैं
हवा नहीं बँधी है
किसी जाति से
और पानी धर्म से
चिड़िया अभी भी
हिन्दुओं के आँगन से उड़ कर
बैठ जाती है मुसलमानों की अटारी पे

उसकी चहचहाहट में
उसकी ख़ुशियों-भरी भाषा में
कहीं कोई फ़र्क नहीं

अच्छे भागवाला हूँ मैं
अभी भी लिखी जा रही है
अन्धेरे के विरुद्ध कविताएँ
अभी भी
मेरे पड़ोसी देश में
अफ़जल अहमद जैसे रहते हैं कई कवि

अच्छे लोग / मुकेश मानस

अच्छे लोग
दिख सकते हैं कहीं भी
अगर आपके पास हो पारख़ी नज़र
और साफ़-सुथरा दिल

अच्छे लोग
होते हैं बेहद साफ़
झरने के पानी की तरह
फूल की खुशबू की तरह
पहाड़ों से आती हवा की तरह

अच्छे लोग
इतने अच्छे होते हैं
कि बच्चे भी उन्हें पहचान सकते हैं
बेहद आसानी से

अच्छे लोग
इतने सीधे होते हैं
कि बहरूपिये उनसे चिढ़ते हैं
कि वो कर नहीं पाते
उनके सीधेपन की नक़ल

अच्छे लोग
ज़रा ज़्यादा ही ईमानदार होते हैं
इसलिए आलोचनात्मक होते हैं आमतौर पर
और थोड़े डरपोक भी

अच्छे लोगों की
सबसे बड़ी गड़बड़ी
यही होती है
कि जहाँ उन्हें साबित होना चाहिए समझदार
वहाँ वे साबित होते हैं बेहद अनाड़ी

अच्छे लोगों की
सबसे बड़ी खूबी यही होती है
कि वे अच्छे होते हैं
और अच्छे बने रहना चाहते हैं
हर हाल में

अच्छे लोग
इतने अच्छे होते हैं
कि एक अदना सा कवि भी
लिख सकता है उन पर
एक सबसे अच्छी कविता
2004

अतीत के छींटे / सुदर्शन प्रियदर्शिनी

इस सन्नाटे भरी
रात में
न जाने
कहाँ से
छटाक से कोई
पत्थर मेरी
खिड़की पर
फैंकता है
और किरच -किरच
हुआ अतीत
मेरे आंगन मे
बिखर जाता है ...!

अतीत की पुकार / अज्ञेय

 जेठ की सन्ध्या के अवसाद-भरे धूमिल नभ का उर चीर
ज्योति की युगल-किरण-सम काँप कौंध कर चले गये दो कीर।
भंग कर वह नीरव निर्वेद, सुन पड़ी मुझे एक ही बार,
काल को करती-सी ललकार, विहग-युग की संयुक्त पुकार!

कीर दो, किन्तु एक था गान; एक गति, यद्यपि दो थे प्राण।
झड़ गये थे आवरण ससीम शक्तिमय इतना था आह्वान!
गये वे, खड़ा ठगा-सा मैं शून्य में रहा ताकता, दूर
कहीं से पा कर निर्मम चोट हुआ माया का शीशा चूर।

प्राण, तुम चली गयीं अत्यन्त कारुणिक, मिथ्या है यह मोह-
देख कर वे दो उड़ते कीर कर उठा अन्तस्तल विद्रोह!
व्यक्ति मेरा इह-बन्धन-मुक्त उड़ चला अप्रतिरुद्ध, अबाध,
स्वयं-चालित थे मेरे पंख-और तुम-तुम थीं मेरे साथ!

मुझे बाँधे है यह अस्तित्व मूक तुम, किस पर्दे के पार
किन्तु खा कर आस्था की चोट-खुल गये बन्दी-गृह के द्वार!
यही है मिलन-मार्ग का सेतु हृदय की यह स्मृति-प्यार-पुकार-
इसी में, रह कर भी विच्छिन्न हमारा है अनन्त अभिसार!

लाहौर, 17 मई, 1935

अतीत की चुभन / उमा अर्पिता

अतीत की यादों के
टूटे काँच को
मैं--
दूर/बहुत दूर
फेंक चुकी थी, पर
अब भी,
जब मैं नए खूबसूरत
ख्यालों/ख्वाबों को
बुनने लगती हूँ, तो
पुरानी/बिखरी यादों की
कोई किरच
हथेलियों में चुभ जाती है
और, रिसते खून से
रंग उठता है
मेरा वर्तमान...!

अतीत का आईना / भरत ओला

उपेक्षाओं के
अनगिनत
थपेड़ों के बाद

गिरता है
जब कभी खंडहर से
कोई लेवड़

उसे
सुख लूटकर
जा चुके मुसाफिर
अक्सर
याद आ जाते हैं

अटखेलियाँ / निदा नवाज़

फूलों के शहर से आई थी वह
नाज़ुक बदन, नाज़ुक अन्दाम
नज़ाक्त्तों का एक ख़ज़ाना था
उसकी आँखों में
और
प्रातः काल की पवन
उसके रेशमी बालों के साथ
करती थीं अटखेलियाँ
चुरा लेती थी थोड़ी खुशबूएं
उसकी आँखों में थे राज़
और होंठों पर अमृत धार
उसके चहरे पर नृति करती थीं
मस्ती की लहरियां
वह दिलों को बनाती थी ग़ुलाम
और इच्छाएं थीं उसकी दासियाँ
मेरे मन-आंगन में
खिलती है उसकी धूप
और आत्मा में
गूंजते हैं उसी के गीत.

अटका बादल / अनीता कपूर

मन कहीं नहीं भटका है
ऊपर एक बादल अटका है
जो तुझ को छू कर आया है
मेरे मन के आँगन में बरसा है
चाँद कहीं नहीं भटका है
दिल के आसमाँ में लटका है
तेरे मन को छू कर आया है
मेरे तन के आँगन में चमका है

अटक गया विचार / बृजेश नीरज

माथे पर सलवटें,
आसमान पर जैसे
बादल का टुकड़ा थम गया हो;
समुद्र में
लहरें चलते रूक गईं हों,
कोई ख़याल आकर अटक गया।

धकियाने की कोशिश बेकार,
सिर झटकने से भी
निशान नहीं जाते।

सावन के बादलों की तरह
घुमड़कर अटक जाता है
वहीं
उसी जगह
उसी बिन्दु पर।

काफ़ी वज़नी है;
सिर भारी हो चला
आँखें थक गईं,
पलकें बोझल।

सहा नहीं जाता
इस विचार का वजन।
आदत नहीं रही
इतना बोझ उठाने की;
अब तो घर का राशन भी
भार में इतना नहीं होता कि
आदत बनी रहे।

बहुत देर तक अटका रहा;
वह कोई तनख़्वाह तो नहीं
झट खतम हो जाए।
अभी भी अटका है वहीं
सिर को भारी करता।
बहुत देर से कुछ नहीं सोचा।
सोचते हैं भी कहाँ
सोचते तो क्यों अटकता।
इस न सोचने,
न बोलने के कारण ही
अटक गयी है ज़िन्दगी।

तालाब में फेंकी गई पालीथीन की तरह
तैर रहा है विचार
दिमाग में
सोच की अवरूद्ध धारा में मण्डराता।

अब मजबूर हूं सोचने को
कैसे बहे धारा अविरल
फिर न अटके
सिर बोझिल करने वाला
कोई विचार।

अतीत के साथ / मनोज श्रीवास्तव

अतीत के साथ

उठो. अतीत!
आरामगाह से बाहर आओ!
अब त्याग दो निद्रा
मैं तुम्हें कुछ पल की
मोहलत देता हूँ,
अंगड़ाइयों से बाहर निकल
तैनात हो जाओ
मेरा मार्गदर्शन के लिए

मैं यहां व्यग्र बैठा
तुम्हारी दुर्गम-दुर्भेद्य राहों पर
बेखटक दौड़ना चाहता हूँ,
मिलना-जुलना चाहता हूँ--
  विहारों, चैत्यों, समितियों
  सम्मेलनों, समर-क्षेत्रों
  सल्तनतों और मंत्रणा कक्षों में
तुम्हारे साथ जी रहे--
  भिक्षुओं, गुरुकुलीय राजकुंवरों
  विषकन्याओं, राजगुरुओं
  वानप्रस्थी महाराजाओं, सम्राटों
  सुल्तानों, बादशाहों
  वायसरायों, गवर्नर जनरलों से

मेरी स्मृति सरिता में
नौका-विहार करते तुम्हारे लोगों से
मिल-बैठकर गप-शप करते हुए
मैं अपने जीवन से बाहर के
अनुभव बिन-बटोर लूँगा,
घुस जाऊंगा अपने पुरखों की उम्र में
और चुरा लाऊंगा
उनकी उपलब्धियों के दस्तावेज़,
उन्हें नत्थी कर दूंगा
अपनी विफलताओं की फाइल में
चुनिन्दा उपलब्धियों के रूप में

आओ, मित्र!
मेरे ख्यालों के गुदगुदेदार फर्श पर
अपने लोगों के साथ,
मैं उन्हें तंग नहीं करूँगा
इस अशिष्ट दुनिया की
खुरदरी जमीन पर बुलाकर
और नहीं कहूँगा कि--
वे तुम्हें निचाट में छोड़
ढेरों बातें करें
मेरा मन बहलाएँ.

अतुकांत चंद्रकांत / रघुवीर सहाय

चंद्रकांत बावन में प्रेम में डूबा था
सत्तावन में चुनाव उसको अजूबा था
बासठ में चिंतित उपदेश से ऊबा था
सरसठ में लोहिया था और ...और क्यूबा था
फिर जब बहत्तर में वोट पड़ा तो यह मुल्क नहीं था
हर जगह एक सूबेदार था हर जगह सूबा था

अब बचा महबूबा पर महबूबा था कैसे लिखूँ

अट्ठारह की उम्र / सुकान्त भट्टाचार्य

कितनी दुस्सह यह अट्ठारह की उम्र
कि सिर उठाने के ख़तरे मोल लेती है

बड़े-बड़े दुस्साहसी सिर उठाते हैं
अट्ठारह की उम्र में हमेशा ।

अट्ठारह की उम्र को नहीं कोई भय
यह ठोकर से तोड़ती है पथ की बाधाएँ
इस उम्र में झुकता नहीं कोई मस्तक
अट्ठारह की यह उम्र नहीं जानती है रोना ।

इस उम्र को पता है रक्तदान का पुण्य
यह वाष्प की गति से चलने की उम्र है
जीवन देने और लेने की उम्र है यह
इस उम्र में ख़ाली नहीं रहती है झोली
इसी उम्र में सौंपते हैं हम अपनी आत्माएँ
शपथ के शोर में ।

बड़ी ख़तरनाक है अट्ठारह की उम्र
कि तरो-ताज़ा ज़िन्दगियों में
उतरती है असहनीय पीड़ा
और इसी उम्र में एक जीवन
पाता है अपनी तेज़ धार
कानों में आती हैं मन्त्रणाएँ ।

अदम्य है अट्ठारह की उम्र
तूफ़ानों में भटकने की उम्र है यह
मुसीबतों से लड़ते-जूझते
लहूलुहान होते हैं हम इसी उम्र में ।

अट्ठारह की उम्र में आघात सहते हैं हम
लगातार बिना थके हुए
लाखों लम्बी-लम्बी साँसों में
दर्द से काँपता है थर-थर अट्ठारहवाँ साल ।

फिर भी सुनता हूँ जय-जयकार अट्ठारहवें साल की
यही उम्र बची रहती है आपदाओं और आँधियों में
ख़तरों के आगे बढ़ती है यह उम्र
कुछ नया-नया-सा होता है
अट्ठारह की उम्र में ।

डरपोक और पौरुषहीन नहीं है
अट्ठारह की उम्र
नहीं जानती रुकना बीच राह में
नहीं कोई भी संशय इस उम्र में ,

अट्ठारह की उम्र मिले इस देश को ।

मूल बंगला से अनुवाद : नील कमल