Friday, 17 March 2017

हिंदी कविता हिन्दी कविताएँ / Hindi Poem /Poetry Hindi Kavita, Kavitaen

Tuesday, 7 March 2017

अनभिज्ञ / आशीष जोग

गगन के रक्ताभ रंग में,
डूबते सूरज की किरणें,
पूछती हैं आज मुझसे -

जान पाए क्या कभी तुम,
फर्क है क्या
भोर और संध्या की धुंधली लालिमा में?

और मैं,
अनभिज्ञ, निश्चल, मूक, कातर,
दूर नभ में डूबते,
सूरज की किरणों से,
निकलते प्रश्न चिन्हों की दिशा में,
देखता हूँ, खोजता
अजना अजाना एक उत्तर!

क्षितिज के गहेरे धुंधलके
थम लेते हाथ मेरा,
और ले चलते मुझे,
उस पार अपने!

अनब्याही औरतें / अनामिका

"माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की, माई री!"
जब भी सुनती हूँ मैं गीत, आपका मीरा बाई,
सोच में पड़ जाती हूँ, वो क्या था
जो माँ से भी आपको कहते नहीं बनता था,

हालांकि संबोधन गीतों का
अकसर वह होती थीं!

वर्किंग विमेन्स हॉस्टल में पिछवाड़े का ढाबा!
दस बरस का छोटू प्यालियाँ धोता-चमकाता
क्या सोचकर अपने उस खटारा टेप पर
बार-बार ये ही वाला गीत आपका बजाता है!

लक्षण तो हैं उसमें
क्या वह भी मनमोहन पुरुष बनेगा,
किसी नन्ही-सी मीरा का मनचीता.
अड़ियल नहीं, ज़रा मीठा!

वर्किंग विमेन्स हॉस्टल की हम सब औरतें
ढूँढती ही रह गईं कोई ऐसा
जिन्हें देख मन में जगे प्रेम का हौसला!

लोग मिले - पर कैसे-कैसे -
ज्ञानी नहीं, पंडिताऊ,
वफ़ादार नहीं, दुमहिलाऊ,
साहसी नहीं, केवल झगड़ालू,
दृढ़ प्रतिज्ञ कहाँ, सिर्फ जिद्दी,
प्रभावी नहीं, सिर्फ हावी,
दोस्त नहीं, मालिक,
सामजिक नहीं, सिर्फ एकांत भीरु
धार्मिक नहीं, केवल कट्टर


कटकटाकर हरदम पड़ते रहे वे
अपने प्रतिपक्षियों पर -
प्रतिपक्षी जो आखिर पक्षी ही थे,
उनसे ही थे.
उनके नुचे हुए पंख
और चोंच घायल!

ऐसों से क्या खाकर हम करते हैं प्यार!
सो अपनी वरमाला
अपनी ही चोटी में गूंथी
और कहा खुद से -
"एकोहऽम बहुस्याम"

वो देखो वो -
प्याले धोता नन्हा घनश्याम!
आत्मा की कोख भी एक होती है, है न!
तो धारण करते हैं
इस नयी सृष्टि की हम कल्पना

जहाँ ज्ञान संज्ञान भी हुआ करे,
साहस सद्भावना!

अनपहचाना घाट / श्रीकांत वर्मा

धूप से लिपटे हुए धुएँ सरीखे
केश, सब लहरा रहे हैं
प्राण तेरे स्कंध पर !!

यह नदी, यह घाट, यह चढ़ती दुपहरी
सब तुझे पहचानते हैं ।

सुबह से ही घाट तुझको जोहता है,
नदी तक को पूछती है,
दोपहर,
उन पर झुंझकुरों से उठ तुझे गोहारती है ।

यह पवन, यह धूप, यह वीरान पथ
सब तुझे पहचानते हैं ।

और मैं कितनी शती से यहाँ तुझको जोहता हूँ ।
आह !

तूने नहीं पहचाना मुझे ।
इन्हीं पत्तों में दबी है बाँसुरी मेरी कहीं ।
इसी नदिया तीर मेरे गान
डूबे हैं कहीं ।
प्राण! तूने नहीं पहचाना मुझे ।
मैं तुझे जोहा किया,
रोया किया,
गाया किया,
किसी मुट्ठी में युगों से बन्द बादल-सा विकल हूँ हर घड़ी ।
प्राण मैं हूँ बवंडर,
जो कहीं पथरा गया ।
आह! मैं कितनी शती से, यहाँ
तुझको जोहता हूँ,
किन्तु तूने नहीं पहचाना मुझे ।
इन्हीं पत्तों में दबी है बाँसुरी मेरी कहीं ।

किसी टहनी पर कहीं यदि डबडबाए फूल
अधरों को छुला दे,
बाँसुरी मेरी
उठाकर, किन्हीं लहरों में सिरा दे ।
मुझे गा दे....मुझे गा दे !!

घाट हूँ मैं भी मगर
मुझको नदी छूती नहीं है !!

सुबह से ही प्राण ! तुझको मैं जोहता हूँ
पूछता हूँ,
झुंझकुरों से उठ तुझे गोहारता हूँ ।

आह! मेरी सब पुकारें, मेघ बनकर भटकती हैं !
किन्तु तूने
नहीं पहिचाना मुझे !!

धूप से लिपटे हुए धुएँ सरीखे
केश सब लहरा रहै हैं
प्राण तेरे स्कंध पर !
इन्हीं पत्तों में दबी है बाँसुरी मेरी कहीं !!

अनन्त में मौन / राजा खुगशाल

स्व० शमशेर जी के प्रति सादर

कुछ दूर गए शमशेर
और फिर रुक गए
जैसे कह रहे हों --
मुझे एक कहकशाँ कहना है
इस रात के साए से

जैसे कह रहे हों --
कहाँ सीढ़ियाँ उतरने की
ज़हमत उठाए चाँद
मैं अकेला पार कर लूँगा पर्वत

परत-दर-परत
कितना ठोस, कितना स्वच्छ
कितना चमकदार है आसमान
'आसमान में गंगा की रेत
आइने की तरह चमक रही है ।'

क़दम-दर-क़दम
फिर मुखरित है अनन्त में मौन ।

अनन्य राग / पुष्पिता

विदेश में
सूरीनाम के भारतवंशियों बीच
ढो लाई हूँ भारत देश
अपनी मन-देह में
देश का मातृत्व प्रेम
देह-माटी में है गंगा माटी

स्मृतियों की अँजुली में है
स्वदेशी बादल
समाहित है मेघदूत
मेघदूत में
कभी कालिदास
कभी नागार्जुन कवि

सूर्य के ज्योति-कलश में है
रघुवंश का तेज-पुंज
सूरीनाम के भारतवंशियों की भक्ति में
स्मरण आते हैं कुमार गन्धर्व
                   जसराज
                   भीमसेन जोशी
कृष्ण की भक्ति में
पहुँचता है चित्त वृन्दावन
राम की भक्ति में चित्रकूट
शिव-शंकर के उपासकों बीच
ह्रदय पहुँचता है काशी तीरे और उज्जैन

सूरीनाम में
बसे हुए भारत में
बसाती हूँ मैं स्मृतियों का भारत
यहाँ के पुरखों में
आत्मा लखती है अपने पुरखे।

अनपढ़ / उमेश चौहान

उसके अनपढ़ होने में
कोई कसूर नहीं था उसका
यह उन लोगों के गुनाहों का सबूत भर था
जो पढ़े-लिखे होकर भी
इस बात के गवाह बने हैं कि

वह अनपढ़ है
भले ही वे इसके पक्षधर हों या न हों।
वह अनपढ़ इसलिए थी
क्योंकि उसके माँ-बाप अनपढ़ थे
क्योंकि उसके गाँव में कोई स्कूल नहीं था
या फिर इसलिए भी कि
कोई पढ़ाने वाला न होने के कारण
बंद पड़ा था

उसके पड़ोसी गाँव का स्कूल भी
या शायद इसलिए कि
माँ-बाप के पास नहीं थी
उसके लिए बचपन में
कॉपी-किताबें खरीदने की ताकत भी।
उसके लकड़ियाँ बीनकर लाने पर ही
घर का चूल्हा जलता था
बीमार माँ के पास बैठकर
उसके चकिया पीसने पर ही
घर में रोटी का जुगाड़ होता था
घर के झाड़ू-बरतन से लेकर

गाँव के दूसरे छोर वाले कुएँ से
पानी लाने तक का सारा जिम्मा भी
उसी के सिर था
उसकी दिनचर्या में
पढ़ना भी शामिल हो
इसकी जरूरत तक
कभी महसूस नहीं की थी उसने
न ही किसी और ने कभी में थी इसका
कोई अहसास भी दिलाया था उसको
औरों की तो मौज ही इसी में थी कि
वह अनपढ़ ही बनी रहे सदा
उनकी सेवा-टहल के लिए सदैव सुलभ।
गाँव से शहर तो चली आई है वह
पति के पीछे-पीछे
पर अनपढ़ बने रहना
परिवार का पेट पालने की खातिर
सस्ते में चाकरी करना
नियति का खेल ही मान रखा है उसने
उसका पति भी नहीं चाहता कि
वह पढ़-लिखकर होशियार बन जाय
और करने लगे प्रश्न पर प्रश्न
उसकी मनमानी भरी बातों पर नित्य।

लेकिन अचानक ही अब
कचोटने लगा है उसको
अपना अनपढ़ होना
जब से लगाने पड़ रहे हैं उसे
थाने व कचेहरी के चक्कर
क्योंकि एक झूठे मामले में
दिल्ली की बेलगाम पुलिस ने
जेल भेज दिया है उसके पति को
कई गैर-जमानती आरोप लगाकर।

पति के केस के वे कागजात
जिन्हें पढ़वाने के लिए
नित्य तमाम तरह की जलालत झेलती है वह
और लगाती रहती है मौन
वकीलों और पुलिस वालों के चक्कर
उन्हें खुद न पढ़ पाने की पीड़ा
पसरी रहती है हमेशा उसके चेहरे पर
जैसी स्थायी रूप से समाई रहती है मलिनता
शहर की अनधिकृत झोपड़पट्टियों में।

बेबस निगाहों से कागजों को पलटती
जब भी मिलती है वह पति से
तिहाड़ जेल की सलाखों के बाहर से
उसे यही लगता है कि
यदि वह स्वयं पढ़ पाती उन कागजों को
तो शायद शीघ्र ही
वापस ले जा सकती थी अपने पति को
उन सलाखों के पीछे से निकालकर
स्वयं अपने ही बलबूते।

निराशा के भँवर में डूबती-उतराती
अंततोगत्वा पढ़ना सीख रही है वह आजकल
काले अक्षरों के बीच उजास तलाशती
अपनी निःस्वप्न आँखों में
अनपढ़ होने का सारा दर्द समेटे।

अनन्त काल तक / पद्मजा शर्मा

कल मेरे ओठों के बीच
गुलाब की कली थी देर तक
धीरे-धीरे उतर गया रंग आँखों में
समा गई ख़ुशबू साँसों में
कोमलता एहसासों में

चाहती हूँ महकना
होना मुलायम
निखरना और ज़्यादा प्यार में

कली को चाहती हूँ देखना
ओस भीगा खिलता हुआ गुलाब
जिसकी महक से महकता रहे जीवन सदा
और अनन्त काल तक
यह धरती रहे आबाद।

अनन्त / सुदर्शन प्रियदर्शिनी

अनन्त

उस दिन
अपने अन्दर के बाह्यंड में झाँका
कितनी भीड़ थी रिश्तों की नातों की
दौड थी भाग थी
हाथ पाँव चल रहे थे
एक पूरी दुनिया
इस ब्रह्मांड में समाई हुई थी।

पर एक कोने में
मैंने देखा
मैं अपना ही हाथ थामे
अनंत को निहारते...
अकेले खड़ी हूँ।

अधिकार हमारा है / रघुवीर सहाय

इस जीवन में
मैं प्रधानमंत्री नहीं हुआ
इस जीवन में मैं प्रधानमंत्री के पद का
उम्मीदवार भी शायद हरगिज़ नहीं बनूँ
पर होने का अधिकार हमारा है
भारत का भावी प्रधानमंत्री होने का
अधिकार हमारा है

तुम हँस सकते हो हँसो कि हाँ हाँ
हो जाओ अधिकार तुम्हारा है
तो सुनो कि हाँ अधिकार हमारा है

भारत के कोई कोने में
मरकर बेमौत जनम लेकर
भारत के कोई कोने में
खोजता रहूँगा वह औरत
काली नाटी सुन्दर प्यारी
जो होगी मेरी महतारी

मैं होऊँ मेरी माँ होवे
दोनों में से कोई होवे
अधिकार हमारा है
भारत का भावी प्रधानमंत्री

अनदेखा / दिनेश कुमार शुक्ल

आँखे तो देख ही लेती हैं
औपचारिकता में छुपी हिंसा को
बेरूखी का हल्का से हल्का रंग
पकड़ लेती है आँख
फिर भी बैठे रहना पड़ता है
खिसियानी मुस्की लिए
छल कपट इर्ष्या भी
कहाँ छुप पाते हैं
आँखों से
सात पर्दों के भीतर से भी
आँख में लग ही जाता है धुआँ

कठिनाई ये है
कि अपनी ही आँखों का देखा
बहुत थोड़ा पहुँच पाता है हम तक
खुद हम ही रोक देते हैं उसे बीच में
अनदेखा करते जाना
जैसे जीने की शर्त हो

अनजाने ही / उमा अर्पिता

कुछ चित्र
सोच-समझकर
नहीं बनाए जाते…
यही सोच मैंने
बस यूँ ही
एक सपना गढ़ने
की कोशिश की…
एक रिश्ता बुनने का
प्रयास किया…
वक्त उसे क्या
आकार, क्या रूप देगा
यह सोचने-समझने की
फुरसत ही कहाँ थी?

उस समय तो
सब कुछ सुहाना था/मनमोहक था
गीली, नरम रेत पर
चलते हुए
कब दूरियों के काँटे
पाँवों में चुभने लगे
पता ही नहीं चला
भूल गई थी कि
हर रिश्ता गणित
का समीकरण
नहीं होता, जहाँ
दो और दो चार ही होंगे
कब, कहां और कैसे
बदल जाएगा
तब यह जाना ही न था
और
जब तक जाना
वक्त हमारे हाथों से
फिसल चुका था...
अब हमारे बीच
मीलों के फासले हैं,
कभी-कभी
कहीं बहुत दूर से
तुम्हारी टीस भरी आवाज
रात के सन्नाटे में सुनाई देती है
मगर अब
चाहत और वास्तविकता
की दूरी को पाटना
असंभव हो गया है!

अधिनायक / रघुवीर सहाय

राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है।
मखमल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चंवर के साथ
तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर
जय-जय कौन कराता है।
पूरब-पश्चिम से आते हैं
नंगे-बूचे नरकंकाल

सिंहासन पर बैठा,उनके
तमगे कौन लगाता है।
कौन-कौन है वह जन-गण-मन
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज बजाता है।

अधिकारी छाए थे / त्रिलोचन

इन्द्र वरुण कुबेर से अधिकारी छाए थे,
शिविर सजे थे, धूलि कहाँ उन को लगती थी,
ख़ुद आए थे, अपनी ऐंठ अकड़ लाए थे,
कुंभ नगर में श्री इन के कारण जगती थी ।
तीर्थराज की रेणु जाहिलों को ठगती थी,
इन के स्पर्शों से पल-पल पवित्र होती थी,
होता था छिड़काव, बात रस में पगती थी
इन लोगों की । बेचारी जनता सोती थी
कल्पवास के श्रम पर, स्वेदबिंदु बोती थी
बंजर में, आसरा कर्म का ताक रही थी,
अलग-अलग भी धरती पर किस की गोती थी
गंगा कल-कल कल-कल कहती बीच बही थी ।

जनता में कब होगा जनता का अधिकारी,
कब स्वतंत्र होगी यह जनता टूटी-हारी ।

अधिकार का प्रश्न / शशि सहगल

मेरे पास अपना बहुत कुछ था
मेरी मिट्टी
मेरी नदी
मेरा धर्म
पर आज लगता है
जहाँ मैं पैदा हुई
जिस मिट्टी में खेली
जिस नदी से प्यास बुझाई
उसे अपना कहने के लिए
मुझे लेनी होगी अनुमति
सत्ता से
माँगनी होगी भीख
धर्म और मज़हब से
इसके बाद भी
क्या मेरा कुछ हो सकेगा अपना !

अधिकार / सीत मिश्रा

सरकार का अधिकार है
तुम्हारे विचारों पर
तुम्हारी चर्चा पर
तुम्हारे व्यवसाय पर
सरकार का अधिकार है
तुम्हारे नाम में
तुम्हारे धर्म में
तुम्हारी प्रार्थना में
सरकार का अधिकार है
तुम्हारे आशियाने पर
तुम्हारी थाली पर
तुम्हारे भोजन पर
सरकार का अधिकार है
तुम्हारी सांसों पर
तुम्हारी जिंदगी पर

अधिकार / विजय कुमार विद्रोही

आज प्रतिफल चाहिये,हर रोज़ प्रतिपल चाहिये ,
आज मैंने जो किया उसका मुझे फल चाहिये ।
अधिकार है मेरा मुझे अधिकार मेरा आज दो ,
तीरगी को तुम सहो उजला सबेरा आज दो ।

क्यूँ रहूँ कठिनाई में दायित्व ये मेरा नहीं,
तुम सँभालो तुम निहारो कृत्य ये मेरा नहीं ।
क्यूँ कहा था ? तुम मेरे संसार के रखवार हो ,
मेरे जीवन में सुखों के ढेर हो अम्बार हो ।

मैंने ही तुझको चुना है मैंने ही तुमको गढ़ा है ,
मैं ही हूँ जिसकी बदौलत आज तू आगे खड़ा है ।
काश मैं तुझसे उलट उस दूसरे को तारता ,
कम से कम बच्चों को मेरे भूख से ना मारता ।

कह रहे हो टैक्स भर दो, क्यूँ भरूँ मैं वाह जी ! ,
अपनी मेहनत की कमाई तुमको दे दूँ वाह जी !
मुझको क्या मतलब है सारे देश के नुकसान से ,
जिंदगी अपनी जियूँगा मरते दम तक शान से ।

मैं पिता हूँ , मैं पति हूँ , पुत्र हूँ दायित्व है ,
मेरे धन पर सिर्फ अपना मेरा ही स्वामित्व है ।
क्या किया है देश ने मेरे लिये कि मैं करूँ ,
तुम हो ज़िम्मेदार इसके तुम सहो,मैं क्यूँ मरूँ ।
सारे कर्तव्यों को मेरे छोड़ सागर पार दो ,
मैं नागरिक हूँ देश का मुझको मेरा अधिकार दो ।

अदृश्य होने से पहले / उदयन वाजपेयी

अदृश्य होने से पहले
शाम हर ओर फैला रही है
अपना महीन जाल

हर अवसाद में
स्पन्दित होने लगा है
हरेक अवसाद

अद्भुत कला / अमरजीत कौंके

मैं जिन्हें
वर्षों तक
दूध पिलाता रहा
अंगुली पकड़ कर
चलना सिखाता रहा
जब वे मेरी पीठ पर
डंक मार रहे थे
तब मुझे पता चला
कि साँप कभी किसी के
मित्रा नहीं होते

लेकिन जब वे
मेरी पीठ पर
डंक मार रहे थे
और मेरे अंगों को
ज़हर से भर रहे थे
तब वे भी नहीं जानते थे
कि मैं
बचपन से ही
यह ज़हर पी-पी कर
पला बढ़ा हूँ

और मुझे
साँपों के सिर कुचलने की
और ज़हर को
ऊर्जा में बदलने की
अद्वभुत कला आती है ।


मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा

अधगले पंजरों पर / अभिमन्यु अनत

भूकम्प के बाद ही
धरती के फटने पर
जब दफनायी हुई सारी चीज़ें
ऊपर को आयेंगी
जब इतिहास के ऊपर से
मिट्टि की परतें धुल जायेंगी
मॉरीशस के उन प्रथम
मज़दूरों के
अधगले पंजरों पर के
चाबुक और बाँसों के निशान
ऊपर आ जायेंगे
उस समय
उसके तपिश से
द्वीप की सम्पत्तियों पर
मालिकों के अंकित नाम
पिघलकर बह जायेंगे
पर जलजला उस भूमि पर
फिर से नहीं आता
जहाँ समय से पहले ही
उसे घसीट लाया जाता है

इसलिए अभी उन कुलियों के

वे अधगले पंजार पंजर
ज़मीन की गर्द में सुरक्षित रहेंगे
और शहरों की व्यावसायिक संस्कृति के कोलाहल में
मानव का क्रन्दन अभी
और कुछ युगों तक
अनसुना रहेगा ।
आज का कोई इतिहास नहीं होता
कल का जो था
वह ज़ब्त है तिजोरियों में
और कल का जो इतिहास होगा

अधगले पंजरों पर
सपने उगाने का ।

अदृश्य परदे के पीछे से / अरुणा राय

अदृश्य परदे के पीछे से
दर्ज़ कराती जाती हूँ मै
अपनी शामतें
जो आती रहती हैं बारहा

अक्सर
उन शामतों की शक्लें होती हैं
अंतिरंजित मिठास से सनी
इन शक्लों की शुरूआत
अक्सर कवित्वपूर्ण होती है
और अभिभूत हो जाती हूँ मै
कि अभी भी करूणा,स्नेह,वात्सल्य से
खाली नहीं हुई है दुनिया

खाली नहीं हुई है वह
सो हुलसकर गले मिलती हूँ मै
पर मिलते ही बोध होता है
कि गले पड़ना चाहती हैं वे शक्लें
कि यही रिवाज है परंपरा है

कि जिसने मेरे शौर्य और साहस को
सलाम भेजा था
वह कॉपीराइट चाहता है
अपनी सहृदयता का , न्यायप्रियता का
उस उल्लास का
जिससे मुझे हुलसाया था

और ठमक जाती हूँ मै
सोचती हुई-
क्या चेहरे की चमक
मेरे निगाहों की निर्दोषिता
काफ़ी नहीं जीने के लिए

सोच ही रही होती हूँ कि
फ़ैसला आ जाता है परमपिताओं का
और चीख़ उठती हूँ -
हे परमपुरूषों बख्शो..., अब मुझे बख्शो!

अदृश्य रंगरेज के प्रति / विमल राजस्थानी

ओ अदृश्य ‘रंगरेज’ ! बता दे
इतने रंग कहाँ से लाया
नभ से क्षिति तक मंत्रमुग्ध-
करने वाला संसार बसाया

एक अकेले इंद्रधनुष में-
सात रंग के तार पिरोये
धरती के कण-कण में अनगिन-
छवियों वाले रंग समोये

रंगों के इस महासिंधु का-
अथ तो है, पर अंत नहीं है
जल-थल के इस रंध्र-रंध्र में-
कह दो कहाँ ‘वसन्त’ नहीं है

यह विचित्र संसार रंग का,
यह सौन्दर्य-राशि अद्भुत है
इस रहस्य की छाया तक को-
भी विज्ञान कहाँ छू पाया

फूलों की घाटी देखी है
निरखे हैं खग-कुल के डैने
तिनके दाँतों तल दबाये
हेरे हैं चित्रित मृग-छौने

हे प्रभु ! तुम कितने विराट हो
हम कितने हैं ठिगने-बौने
तुमने थमा दिये हाथों में-
ये असंख्य रंगीन खिलौने

रंग-बिरंगे शत-सहस्त्र इन-
रंगों का छवि-जाल अजब है
यह कैसी सम्मोहन-लीला,
यह कैसा अद्भुत करतब है !

लपटों तक में देखा-निरखा है
रंगों का शाश्वत जादू
कितना सुंदर रंग तुम्हारा-
होगा, कोई जान न पाया।

ओ अदृश्य ‘रँगरेज’ बता दे
इतने रंग कहाँ से लाया ?
नभ से क्षिति तक मंत्रमुग्ध
करनेवाला संसार बसाया।

अदृश्य होते हुए / दिविक रमेश

जानता मैं भी हूं कि
लगभग अदृश्य हो रहा हूँ
अदृश्य यूँ कौन नहीं हो रहा

न वह हवा है, न पानी ही
न पेड़ों में वह पेड़त्व ही

जगत चाचा की कौन कहे
अब तो वे भी जो कभी बेचते थे
बिक रहे हैं सौदों से

मैं तो फिर भी
लगता है महज अदृश्य हो रहा हूँ
आज न तसल्ली में तसल्ली है
न दुख में दुख
यहाँ तक कि चालाकियाँ भी अब कहाँ रहीं ढँकी-दबी
सरेआम नग्न हैं
घूम रही हैं बेईमानियाँ पेट फुलाए

चोर चौराहे पर कर रहा है घोषणा कि वह चोर है
हत्यारे को अब नहीं रही ज़रूरत छिपने की

ऐसे दृश्यबंधों में
सभ्यताओं से दूर
किसी कोने में रह रही अछूती जनजाति में बचे
बल्कि बचे-खुचे
थोड़े लिहाज-सा
ग़नीमत है
कि मैं महज अदृश्य हो रहा हूँ
वह जो एक रिश्ता था
है तो अब भी

वह जो एक ताप था
है तो अब भी
वह जो एक नाप था
है तो अब भी
यानी और भी बहुत कुछ जो कि था
है तो अब भी
पर कहाँ-कहाँ

यक़ीन मुझे भी हो रहा है
कि हो रहा हूँ अदृश्य
एक इबारत की तरह जो चमकती थी कभी
कि जो पढ़ी जा सकती थी कभी
और समझी भी

पर नही अफ़सोस मुझे तब भी
कि हूँ तो
हो रहा हूं महज अदृश्य ही

वे रचनाएँ भी तो हैं
बाक़ी है जिनका अभी पढ़ा जाना
चढ़ा जाना जबान और आँखों पर
श्रेष्ठ-जनों की

जब समय में से समय ही किया जा रहा हो अदृश्य
तब क्या बिसात है उन पेड़ों की
जिन पर पत्ते भी हैं और रंग भी
पर वही नहीं है
जिसे होना चाहिए था

तब वज़ूद क्या उन नदियों का
जिनमें जल भी है और लहरें भी
बस वही नहीं है जिसे होना चाहिए था

ग़नीमत है कि अभी है बचा मुझमें
बस वही
भले ही हो रहा हूं मैं अदृश्य

एक हल्की सी चालाकी सिखा दी गई है मुझे भी
एक ग़लत क्रियापद को मैंने भी बना लिया है हथियार
रहने को सुरक्षित

ग़नीमत है कि मुझे याद है इबारत
कि मैं हो रहा हूँ
न कि किया जा रहा हूँ
अदृश्य

अनंग पुष्प / पुष्पिता

तुम
प्रेम का शब्द हो
विदेह प्रणय की
सुकोमल देह
अनंग पुष्प की
साकार सुगंध।
अनुभूति का अभिव्यक्त रूप
अजस्र उष्म अमृत-कुंड
जिसमें नहाती और तपती है देह
प्रणय की ज्वालामुखी आँच में
लावा के सुख को जानने के लिए।
अपनी ही सांसों की
हिमानी हवाओं में
बर्फ होती हुई
स्मृतियों के स्वप्न से
पिघलती है
अपनी ही तृषा-तृप्ति के लिए
पीती हूँ अपनी ही देह का पिघलाव
तुम्हारे सामने न होने पर
दर्द से जन्मे
आँसुओं को
दर्द से जिया है।
प्रतीक्षा की आग के ताप को
आँसू
चुप नदी की तरह पीती है
प्रतीक्षा के प्रवाह में
टूटी लकीरें तोड़ती हैं
संवेदनाओं का साहस।

अनंत / सुदर्शन प्रियदर्शिनी

उस दिन
अपने अन्दर के
ब्रह्माण्ड में
झाँका कितनी
भीड़ थी रिश्तों की,
नातों की
दौड़ थी, भाग थी
हाथ-पाँव
चल रहे थे...
एक पूरी दुनिया
इस ब्रह्माण्ड में
समायी हुई थी

पर एक कोने
में मैंने देखा
मैं अपना ही
हाथ थामे
अनन्त को निहारते
अकेले खड़ी हूँ।

अनायास ही / कुमार सुरेश

हम अनचाहा गर्भ नहीं थे
हत्या कर नाली में बहाया नहीं गया
माँ की छाती में हमारा पेट भरने के लिए दूध था
खाली थे उसके हाथ हमें थामने के लिए

वह गाड़ी चूक गयी हमसे
जो मिलती तो पहुचती कभी नहीं
निकली ही थी ट्रेन
स्टेशन पर गोली चली
उस विमान पर नहीं था बम
जिस पर हम सवार हुए

सड़क पर कितनी ही बार
गिन्दगी और मौत के बीच दुआ सलाम हुई
घर में बचे रहे खुद के बिछाए फंदों से
बीमारिया चूकती रही निशाना
आकाश की बिजली घर पर नहीं गिरी

जब सुनामी आई हम मरीना बीच पर नहीं थे
धरती थर्राई नहीं थे हम भुज में
हम स्टेटस में नहीं थे नौ ग्यारह के रोज
श्रीनगर अहमदाबाद में नहीं थे
जब बम फूटा

हम इस बक्त भी वहा कही नहीं है
जीवन हार रहा है जहाँ म्रत्यु से

फिलवक्त इस जगह पर
हम इतने यह और उतने वह
इतना बनाया और इकठ्ठा किया
क्योकि अनायास ही जहाँ मौजूद थे
वह सही वक्त और सही जगह थी
गलत वक्त गलत जगह पर कभी नहीं थे हम

अनायास / अजित कुमार

रेंगते हुए एक लम्बे से केंचुए को,
मैंने जूते की नोक से जैसे ही छेड़ा,
वह पहले तो सिमटा,
फिर गुड़ीमुड़ी नन्हीं एक गोली बन,
सहसा स्थिर हो गया ।

क्या मैं जानता था
देखूँगा इस तरह
गीली मिट्टी में अनायास
अपना प्रतिबिम्ब ?

अनायास / अनुज लुगुन

अनायास ही लिख देता हूँ
तुम्हारा नाम
शिलापट पर अंकित शब्दों-सा
हृदय मे टंकित
संगीत के मधुर सुरों-सा
अनायास ही गुनगुना देता हूँ
तुम्हारा नाम ।

अनायास ही मेघों-सी
उमड़ आती हैं स्मृतियाँ
टपकने लगती हैं बूँदें
ठहरा हुआ मैं
अनायास ही नदी बन जाता हूँ
और तटों पर झुकी
कँटीली डालियों को भी चूम लेता हॅूँ
रास्ते के चट्टानों से मुस्कुरा लेता हूँ ।

शब्दों के हेर-फेर से
कुछ भी लिखा जा सकता है
कोई भी कुछ भी बना सकता है
मगर तुम्हारे दो शब्दों से
निकलते हैं मिट्टी के अर्थ
अंकुरित हो उठते हैं सूखे बीज
और अनायास ही स्मरण हो आता है
लोकगीत के प्रेमियों का किस्सा ।

किसी राजा के दरबार का कारीगर
जिसका हुनर ताज तो बना सकता है
लेकिन फफोले पड़े उसके हाथ
अॅँधेरे में ही पत्नी की लटों को तराशते हैं
अनायास ही स्मरण हो आता हैं
उस कारीगर का चेहरा
जिस पर लिखी होती हैं सैकड़ों कविताएँ
जिसके शब्द, भाव और अर्थ
आँखों में छुपे होते हैं
जिसके लिए उसकी पत्नी आँचल पसार देती है

क़ीमती हैं उसके लिए
उसके आँसू
उसके हाथों बनाए ताज से
मोतियों की तरह
अनायास ही उन्हे
वह चुन लेती है।

अनायास ही स्मरण हो उठते हैं
सैकड़ों हुनरमन्द हाथ
जिनकी हथेलियों पर कुछ नहीं लिखा होता है
प्रियतमा के नाम के सिवाय ।

अनायास ही उमड़ आते हो तुम
तुम्हारा नाम
जिससे निकलते हैं मिट्टी के अर्थ
जिससे सुलगती है चूल्हे की आग
तवे पर इठलाती है रोटी
जिससे अनायास ही बदल जाते हैं मौसम ।

 अनायास ही लिख देता हूँ
तुम्हारा नाम
अनायास ही गुनगुना देता हूँ
संगीत के सुरों-सा
सब कुछ अनायास
जैसे अपनी धुरी पर नाचती है पृथ्वी
और उससे होते
रात और दिन
दिन और रात
अनायास
सब कुछ....

अनाम ‘वह’ के लिए / पुष्पिता

 वह
हमेशा जागती रहती है
नदी की तरह

वह
हमेशा खड़ी रहती है
पहाड़ की तरह

वह
हमेशा चलती रहती है
हवा की तरह

वह अपने भीतर
कभी अपनी ॠतुएँ
नहीं देख पाती है

वह
अपनी ही नदी में
कभी नहीं नहा पाती है

वह
अपने ही स्वाद को
कभी नहीं चख पाती है ।

अनाथ गौरैया / असंगघोष

दादा डालते थे दाना
रोज सुबह नियम से
चुगने उतर आतीं थीं
दाड़िम के पेड़ से आंगन में
बेधड़क सबकी सब,
गौरैयाँ

बेरोक-टोक-बेखौफ
आज नहीं आती हैं वे
घर के आँगन में
जो अब बचा ही नहीं
उसकी जगह ले ली है
चहार दिवारों में बने
रोशनदानों ने

खिड़कियों ने
दिवार पर टँगी
दादा की तस्वीर के पीछे
खाली जगह में,
ट्यूबलाइट व बल्ब के
होल्डर के ऊपर
गौरैया ने
अपना घर बसा लिया है
एक घर के अन्दर
बने घर में
जहाँ गौरैया को जाने में
छत में टँगे
घूमते पंखे से
जान का खतरा है
जिससे
हम तो अनजान नहीं हैं
पर गौरैया अनजान है

वह जा बैठती है
कभी बंद पंखे पर
कभी चलते पंखे से
टकरा
घायल हो
गिर जाती है

उसे सहानुभूति से उठाकर
इलाज करने वाला
कोई नहीं है
अब दाना डालनेवाला भी
कोई नहीं है!

उस आँगन में
जो कैद है चहार दीवारी में
हमारी संवेदनाएँ मर चुकी हैं
निरीह पक्षियों के लिए
दादा के चले जाने के बाद
गौरैयाँ अनाथ हैं।

अनाम चिड़िया के नाम / एकांत श्रीवास्तव

गंगा इमली की पत्तियों में छुपकर
एक चिड़िया मुँह अँधेरे
बोलती है बहुत मीठी आवाज़ में
न जाने क्या
न जाने किससे
और बरसता है पानी

आधी नींद में खाट-बिस्तर समेटकर
घरों के भीतर भागते हैं लोग
कुछ झुँझलाए, कुछ प्रसन्न

घटाटोप अंधकार में चमकती है बिजली
मूसलधार बरसता है पानी
सजल हो जाती हैं खेत
तृप्त हो जाती हैं पुरखों की आत्माएँ
टूटने से बच जाता है मन का मेरुदंड

कहती है मंगतिन
इसी चिड़िया का आवाज़ से
आते हैं मेघ
सुदूर समुद्रों से उठकर

ओ चिड़िया
तुम बोले बारम्बार गाँव में
घर में, घाट में, वन में
पत्थर हो चुके आदमी के मन में ।

अनाम / हरीशचन्द्र पाण्डे

उस दिन वह आग कल्छुल में आयी थी पड़ोस के घ्ज्ञर से
फूँकते-फूँकते अंगारों को न बुझते देते हुए

कभी-कभी
बुझ ही जाती है घर की सहेजी आग

दाता इतराया नहीं
और इसे पुण्य समझना भी पाप था

रखें तो कहाँ रखें इस भान को

पुण्य और पुण्य से परे भी है कुछ अनाम
जैसे
दिवंगता माँ के नवजात को मिल ही जाती है
कोई दूसरी भरी छाती...

अनाथ-सी आवाज़ / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

मैं जब भी तुमसे बात करना चाहता हूँ
देर तक देखता रहता हूँ ख़लाओं में कहीं
एक अनाथ-सी आवाज़ आह भरती है
अपनी आँख में तब बात बोया करता हूँ
मेरे ख़याल के खेतों में ओस गिरती है
सफ़ेद बर्फ़-सी जम जाती है पुतली पर
लहूलुहान नज़र आती है ज़ुबान मेरी
मगर पुकार में कोई शिकन नहीं मिलती
बस उम्मीद की छाती पर छाले उगते हैं
अभी तो फ़ासलों के फ़र्श पर लेटा हुआ हूँ
साँस लेती हुई हर सोच सिहर उठती है
मेरे दिमाग़ में कुछ दर्द-सा दम भरता है
बदन में बहता हुआ लाल लहू ज़िंदा है
जाने क्या सोचकर किस बात से शर्मिंदा है
मेरी पलकों ने तुम्हें जब भी चूमना चाहा
मैंने फ़ासलों की हर फसल जलाई है
जैसे होली से पहले जलाए रात कोई
जैसे होंठ में दफ़नाई जाए बात कोई
जैसे प्यास में पोशीदा हो बरसात कोई
जैसे ख़्वाब के खेतों में मुलाक़ात कोई
जैसे नीलाम-सी हो जाए नीली ज़ात कोई
जैसे जीत में जम्हाई ले-ले मात कोई
सिवाय इसके मुझे कुछ भी नहीं कहना है
तुम्हारी आँख के आँचल के तले रहना है

अधूरी पैरोड़ी / मुकेश मानस

नेताओं ने पकड़ लिए हैं कान
और अफसरों ने कालर
सावधान आता है डालर

आंखें कोई खुली न रक्खे
बंद ही रखे कान
मेहमानों के भेस में प्यारे
आता है शैतान
भागो, दौड़ो कैम्पा लाओ
औ’ झलने को झालर
सावधन आता है डालर

रचनाकाल:1992

अधूरी रहेगी / महेश चंद्र पुनेठा

रोज़-रोज़ करती हो साफ़
घर का एक-एक कोना
रगड़-रगड़ कर पोछ डालती हो
हर-एक दाग-धब्बा
मंसूबे बनाती होगी मकड़ी
कहीं कोई जाल बनाने की
तुम उससे पहले पहुँच जाती हो वहाँ
हल्का धूसरपन भी
नहीं है तुम्हें पसंद

हर चीज़ को
देखना चाहती हो तुम हमेशा चमकते हुए
तुम्हारे रहते हुए धूल तो
कहीं बैठ तक नहीं सकती
जमने की बात तो दूर रही

इस सब के बावजूद
रह गए हैं यहाँ
भीतर-बाहर
अनेक दाग-धब्बे
अनेक जाले
धूल की परतें ही परतें
धूसरपन ही धूसरपन

सदियों से बने हुए हैं जो
बने रहेंगे जब तक ये
अधूरी ही रहेगी तुम्हारी साफ़-सफ़ाई ।

अदृश्य इमारत / राग तेलंग

शंका की इमारत
बहुत जल्द तामीर होती है
वह भी
बिना किसी साजो-सामान के

जितनी होती नहीं
उससे कहीं ज्यादा बुलंद
दिखाई देती है

इसके कारीगर
आम तौर पर
अदृश्य बने रहते हैं

जिद्दी,आत्मकेंद्रित और
लालची लोगों का यह आवास
है एक ऐसा गहना
जो चैन चुरा लेता है सबका ।

अदृश्य / भारत भूषण अग्रवाल

ऐसा नहीं है कि मैं जानता न होऊँ
उस दिन
लंच को जाते हुए
रेस्तराँ की आठवीं सीढ़ी पर
तुमने अचानक ठिठककर
मेरी ओर क्यों देखा था
उन आँखों से
जिनमें मेरा इतिहास अंकित है।

है अगर कुछ
तो सिर्फ़ यही
कि तुमने
मेरी वह बाँह नहीं देखी
जिसने तुम्हें थामा था।

रचनाकाल : 19 मार्च 1965

अनहद के स्वर / विमल राजस्थानी

सुन रे मन ! तू अनहद के स्वर छोड़ डगर बाहर की
अंतर पथ पर कोमल युगण चरण धर
सुन रे मन तू अनहद के स्वर

काशी-काबा
शोर-शराबा
तीरथ-संगम
सब जड़-जंगम

चाँद-सितारे
व्यर्थ निहारे
तुम्हें पुकारे
उर-अभयन्तर
पल-पल तेरा मरण-शरण रे !
क्यों न करे ‘सोह्म’ ही वरण रे !
सहस्रार से सुधा झर रही है
झर-झर-झर
सुन रे मन ! तू ‘अनहद’ के स्वर

ये जो हैं रे चार दिशाएँ
ऊपर-नीचे, दाँयें, बाँयें
ये सब केवल भ्रम फैलाएँ
मन को भटकायें, अटकायें
पोथी-पतरे, थोथी-सतरें
भूलो मत रे ‘ढाई आखर’
सुन रे मन ! तू ‘अनहद’ के स्वर
देह-चदरिया झीनी-झीनी
जनम-जनम मटमैली कीनी
तज-तज दीं ‘कैरी’ रस भीनी
छिलके और गुठलियाँ बीनी
मरूथल में ही भटका-भटका
लिए-लिए भीतर रस-निर्झर
सुन रे मन तू ‘अनहद’ के स्वर