Tuesday, 7 March 2017

अतीत का आईना / भरत ओला

उपेक्षाओं के
अनगिनत
थपेड़ों के बाद

गिरता है
जब कभी खंडहर से
कोई लेवड़

उसे
सुख लूटकर
जा चुके मुसाफिर
अक्सर
याद आ जाते हैं

अटखेलियाँ / निदा नवाज़

फूलों के शहर से आई थी वह
नाज़ुक बदन, नाज़ुक अन्दाम
नज़ाक्त्तों का एक ख़ज़ाना था
उसकी आँखों में
और
प्रातः काल की पवन
उसके रेशमी बालों के साथ
करती थीं अटखेलियाँ
चुरा लेती थी थोड़ी खुशबूएं
उसकी आँखों में थे राज़
और होंठों पर अमृत धार
उसके चहरे पर नृति करती थीं
मस्ती की लहरियां
वह दिलों को बनाती थी ग़ुलाम
और इच्छाएं थीं उसकी दासियाँ
मेरे मन-आंगन में
खिलती है उसकी धूप
और आत्मा में
गूंजते हैं उसी के गीत.

अटका बादल / अनीता कपूर

मन कहीं नहीं भटका है
ऊपर एक बादल अटका है
जो तुझ को छू कर आया है
मेरे मन के आँगन में बरसा है
चाँद कहीं नहीं भटका है
दिल के आसमाँ में लटका है
तेरे मन को छू कर आया है
मेरे तन के आँगन में चमका है

अटक गया विचार / बृजेश नीरज

माथे पर सलवटें,
आसमान पर जैसे
बादल का टुकड़ा थम गया हो;
समुद्र में
लहरें चलते रूक गईं हों,
कोई ख़याल आकर अटक गया।

धकियाने की कोशिश बेकार,
सिर झटकने से भी
निशान नहीं जाते।

सावन के बादलों की तरह
घुमड़कर अटक जाता है
वहीं
उसी जगह
उसी बिन्दु पर।

काफ़ी वज़नी है;
सिर भारी हो चला
आँखें थक गईं,
पलकें बोझल।

सहा नहीं जाता
इस विचार का वजन।
आदत नहीं रही
इतना बोझ उठाने की;
अब तो घर का राशन भी
भार में इतना नहीं होता कि
आदत बनी रहे।

बहुत देर तक अटका रहा;
वह कोई तनख़्वाह तो नहीं
झट खतम हो जाए।
अभी भी अटका है वहीं
सिर को भारी करता।
बहुत देर से कुछ नहीं सोचा।
सोचते हैं भी कहाँ
सोचते तो क्यों अटकता।
इस न सोचने,
न बोलने के कारण ही
अटक गयी है ज़िन्दगी।

तालाब में फेंकी गई पालीथीन की तरह
तैर रहा है विचार
दिमाग में
सोच की अवरूद्ध धारा में मण्डराता।

अब मजबूर हूं सोचने को
कैसे बहे धारा अविरल
फिर न अटके
सिर बोझिल करने वाला
कोई विचार।

अतीत के साथ / मनोज श्रीवास्तव

अतीत के साथ

उठो. अतीत!
आरामगाह से बाहर आओ!
अब त्याग दो निद्रा
मैं तुम्हें कुछ पल की
मोहलत देता हूँ,
अंगड़ाइयों से बाहर निकल
तैनात हो जाओ
मेरा मार्गदर्शन के लिए

मैं यहां व्यग्र बैठा
तुम्हारी दुर्गम-दुर्भेद्य राहों पर
बेखटक दौड़ना चाहता हूँ,
मिलना-जुलना चाहता हूँ--
  विहारों, चैत्यों, समितियों
  सम्मेलनों, समर-क्षेत्रों
  सल्तनतों और मंत्रणा कक्षों में
तुम्हारे साथ जी रहे--
  भिक्षुओं, गुरुकुलीय राजकुंवरों
  विषकन्याओं, राजगुरुओं
  वानप्रस्थी महाराजाओं, सम्राटों
  सुल्तानों, बादशाहों
  वायसरायों, गवर्नर जनरलों से

मेरी स्मृति सरिता में
नौका-विहार करते तुम्हारे लोगों से
मिल-बैठकर गप-शप करते हुए
मैं अपने जीवन से बाहर के
अनुभव बिन-बटोर लूँगा,
घुस जाऊंगा अपने पुरखों की उम्र में
और चुरा लाऊंगा
उनकी उपलब्धियों के दस्तावेज़,
उन्हें नत्थी कर दूंगा
अपनी विफलताओं की फाइल में
चुनिन्दा उपलब्धियों के रूप में

आओ, मित्र!
मेरे ख्यालों के गुदगुदेदार फर्श पर
अपने लोगों के साथ,
मैं उन्हें तंग नहीं करूँगा
इस अशिष्ट दुनिया की
खुरदरी जमीन पर बुलाकर
और नहीं कहूँगा कि--
वे तुम्हें निचाट में छोड़
ढेरों बातें करें
मेरा मन बहलाएँ.

अतुकांत चंद्रकांत / रघुवीर सहाय

चंद्रकांत बावन में प्रेम में डूबा था
सत्तावन में चुनाव उसको अजूबा था
बासठ में चिंतित उपदेश से ऊबा था
सरसठ में लोहिया था और ...और क्यूबा था
फिर जब बहत्तर में वोट पड़ा तो यह मुल्क नहीं था
हर जगह एक सूबेदार था हर जगह सूबा था

अब बचा महबूबा पर महबूबा था कैसे लिखूँ

अट्ठारह की उम्र / सुकान्त भट्टाचार्य

कितनी दुस्सह यह अट्ठारह की उम्र
कि सिर उठाने के ख़तरे मोल लेती है

बड़े-बड़े दुस्साहसी सिर उठाते हैं
अट्ठारह की उम्र में हमेशा ।

अट्ठारह की उम्र को नहीं कोई भय
यह ठोकर से तोड़ती है पथ की बाधाएँ
इस उम्र में झुकता नहीं कोई मस्तक
अट्ठारह की यह उम्र नहीं जानती है रोना ।

इस उम्र को पता है रक्तदान का पुण्य
यह वाष्प की गति से चलने की उम्र है
जीवन देने और लेने की उम्र है यह
इस उम्र में ख़ाली नहीं रहती है झोली
इसी उम्र में सौंपते हैं हम अपनी आत्माएँ
शपथ के शोर में ।

बड़ी ख़तरनाक है अट्ठारह की उम्र
कि तरो-ताज़ा ज़िन्दगियों में
उतरती है असहनीय पीड़ा
और इसी उम्र में एक जीवन
पाता है अपनी तेज़ धार
कानों में आती हैं मन्त्रणाएँ ।

अदम्य है अट्ठारह की उम्र
तूफ़ानों में भटकने की उम्र है यह
मुसीबतों से लड़ते-जूझते
लहूलुहान होते हैं हम इसी उम्र में ।

अट्ठारह की उम्र में आघात सहते हैं हम
लगातार बिना थके हुए
लाखों लम्बी-लम्बी साँसों में
दर्द से काँपता है थर-थर अट्ठारहवाँ साल ।

फिर भी सुनता हूँ जय-जयकार अट्ठारहवें साल की
यही उम्र बची रहती है आपदाओं और आँधियों में
ख़तरों के आगे बढ़ती है यह उम्र
कुछ नया-नया-सा होता है
अट्ठारह की उम्र में ।

डरपोक और पौरुषहीन नहीं है
अट्ठारह की उम्र
नहीं जानती रुकना बीच राह में
नहीं कोई भी संशय इस उम्र में ,

अट्ठारह की उम्र मिले इस देश को ।

मूल बंगला से अनुवाद : नील कमल