Tuesday, 7 March 2017

अच्छे लोग / मुकेश मानस

अच्छे लोग
दिख सकते हैं कहीं भी
अगर आपके पास हो पारख़ी नज़र
और साफ़-सुथरा दिल

अच्छे लोग
होते हैं बेहद साफ़
झरने के पानी की तरह
फूल की खुशबू की तरह
पहाड़ों से आती हवा की तरह

अच्छे लोग
इतने अच्छे होते हैं
कि बच्चे भी उन्हें पहचान सकते हैं
बेहद आसानी से

अच्छे लोग
इतने सीधे होते हैं
कि बहरूपिये उनसे चिढ़ते हैं
कि वो कर नहीं पाते
उनके सीधेपन की नक़ल

अच्छे लोग
ज़रा ज़्यादा ही ईमानदार होते हैं
इसलिए आलोचनात्मक होते हैं आमतौर पर
और थोड़े डरपोक भी

अच्छे लोगों की
सबसे बड़ी गड़बड़ी
यही होती है
कि जहाँ उन्हें साबित होना चाहिए समझदार
वहाँ वे साबित होते हैं बेहद अनाड़ी

अच्छे लोगों की
सबसे बड़ी खूबी यही होती है
कि वे अच्छे होते हैं
और अच्छे बने रहना चाहते हैं
हर हाल में

अच्छे लोग
इतने अच्छे होते हैं
कि एक अदना सा कवि भी
लिख सकता है उन पर
एक सबसे अच्छी कविता
2004

अतीत के छींटे / सुदर्शन प्रियदर्शिनी

इस सन्नाटे भरी
रात में
न जाने
कहाँ से
छटाक से कोई
पत्थर मेरी
खिड़की पर
फैंकता है
और किरच -किरच
हुआ अतीत
मेरे आंगन मे
बिखर जाता है ...!

अतीत की पुकार / अज्ञेय

 जेठ की सन्ध्या के अवसाद-भरे धूमिल नभ का उर चीर
ज्योति की युगल-किरण-सम काँप कौंध कर चले गये दो कीर।
भंग कर वह नीरव निर्वेद, सुन पड़ी मुझे एक ही बार,
काल को करती-सी ललकार, विहग-युग की संयुक्त पुकार!

कीर दो, किन्तु एक था गान; एक गति, यद्यपि दो थे प्राण।
झड़ गये थे आवरण ससीम शक्तिमय इतना था आह्वान!
गये वे, खड़ा ठगा-सा मैं शून्य में रहा ताकता, दूर
कहीं से पा कर निर्मम चोट हुआ माया का शीशा चूर।

प्राण, तुम चली गयीं अत्यन्त कारुणिक, मिथ्या है यह मोह-
देख कर वे दो उड़ते कीर कर उठा अन्तस्तल विद्रोह!
व्यक्ति मेरा इह-बन्धन-मुक्त उड़ चला अप्रतिरुद्ध, अबाध,
स्वयं-चालित थे मेरे पंख-और तुम-तुम थीं मेरे साथ!

मुझे बाँधे है यह अस्तित्व मूक तुम, किस पर्दे के पार
किन्तु खा कर आस्था की चोट-खुल गये बन्दी-गृह के द्वार!
यही है मिलन-मार्ग का सेतु हृदय की यह स्मृति-प्यार-पुकार-
इसी में, रह कर भी विच्छिन्न हमारा है अनन्त अभिसार!

लाहौर, 17 मई, 1935

अतीत की चुभन / उमा अर्पिता

अतीत की यादों के
टूटे काँच को
मैं--
दूर/बहुत दूर
फेंक चुकी थी, पर
अब भी,
जब मैं नए खूबसूरत
ख्यालों/ख्वाबों को
बुनने लगती हूँ, तो
पुरानी/बिखरी यादों की
कोई किरच
हथेलियों में चुभ जाती है
और, रिसते खून से
रंग उठता है
मेरा वर्तमान...!

अतीत का आईना / भरत ओला

उपेक्षाओं के
अनगिनत
थपेड़ों के बाद

गिरता है
जब कभी खंडहर से
कोई लेवड़

उसे
सुख लूटकर
जा चुके मुसाफिर
अक्सर
याद आ जाते हैं

अटखेलियाँ / निदा नवाज़

फूलों के शहर से आई थी वह
नाज़ुक बदन, नाज़ुक अन्दाम
नज़ाक्त्तों का एक ख़ज़ाना था
उसकी आँखों में
और
प्रातः काल की पवन
उसके रेशमी बालों के साथ
करती थीं अटखेलियाँ
चुरा लेती थी थोड़ी खुशबूएं
उसकी आँखों में थे राज़
और होंठों पर अमृत धार
उसके चहरे पर नृति करती थीं
मस्ती की लहरियां
वह दिलों को बनाती थी ग़ुलाम
और इच्छाएं थीं उसकी दासियाँ
मेरे मन-आंगन में
खिलती है उसकी धूप
और आत्मा में
गूंजते हैं उसी के गीत.

अटका बादल / अनीता कपूर

मन कहीं नहीं भटका है
ऊपर एक बादल अटका है
जो तुझ को छू कर आया है
मेरे मन के आँगन में बरसा है
चाँद कहीं नहीं भटका है
दिल के आसमाँ में लटका है
तेरे मन को छू कर आया है
मेरे तन के आँगन में चमका है