Tuesday, 7 March 2017

अतीत / समझदार किसिम के लोग / लालित्य ललित

तुम
पहले-से नहीं रहे
वक्त ने बदल दी
तुम्हारी परिभाषा
तुम्हारा भूगोल
और
मैंने अब इतिहास पढ़ना
छोड़ दिया
वर्तमान में हूँ
तो दुहराव क्यों
मैं
खुद
इतिहास हो रही हूँ
कुतुब मीनार ने
खड़े-खड़े
यूं ही
अपने आपसे
सवाल किया

अच्छे दिनों में क्या सब कुछ अच्छा होगा / कृष्ण कल्पित

अच्छे दिनों में क्या सब कुछ अच्छा होगा

जितने भी बुरे कवि हैं
वे क्या अच्छे दिनों में अच्छे कवि हो जाएँगे

क्या हत्यारे अच्छे हत्यारे पुकारे जाएँगे

क्या डाकू भी सुल्ताना डाकू जैसे अच्छे और नेक होंगे

क्या वेश्याओं को गणिकाएँ कहा जाएगा अच्छे दिनों में

जिसका भी गला रेता जाएगा
अच्छे से रेता जाएगा अच्छे दिनों में

बुरे भी अच्छे हो जाएँगे अच्छे दिनों में

आएँगे
ज़रूर आएँगे अच्छे दिन
किसी दिन वे धड़ाम से गिरेंगे आकर !

अच्छे दिन आने वाले हैं / अंजू शर्मा

बेमौसम बरसात का असर है
या आँधी के थपेड़ों की दहशत
उसकी उदासी के मंजर दिल कचोटते हैं
मेरे घर के सामने का वह पेड़
जिसकी उम्र और इस देश के संविधान की
उम्र में कोई फर्क नहीं है
आज खौफजदा है

मायूसी से देखता है लगातार
झड़ते पत्तों को
छाँट दी गई उन बाँहों को जो एक पड़ोसी
की बालकनी में जबरन घुसपैठ की
दोषी पाई गईं

नहीं यह महज खब्त नहीं है
कि मैं इस पेड़ की आँखों में छिपे डर को
कुछ कुछ पहचानने लगी हूँ
उसका अनकहा सुनने लगी हूँ
कुल्हाड़ियों से निकली उसकी कराह से सिहरने लगी हूँ

कुल्हाड़ियों का होना
उसके लिए जीवन में भय का होना है
तलवार की धार पर टँगे समय की चीत्कार
का होना है
नाशुक्रे लोगों की मेहरबानियों का होना है

मैं उसकी आँखों में देखना चाहती हूँ
नए पत्तों का सपना
सुनना चाहती हूँ बचे पत्तों की
सरसराहट से निकला स्वागत गान
मैं उसके कानों में फूँक देना चाहती हूँ
अच्छे दिनों के आने का संदेश

ये कवायद है खून सने हाथों से बचते हुए
आशाओं के सिरे तलाशने की
उम्मीदों से भरी छलनी के रीत जाने पर भी
मंगल गीत गाने की
परोसे गए छप्पनभोग के स्वाद को
कंकड़ के साथ महसूसने की
मुखौटा ओढ़े काल की आहट को अनसुना करने की
बेघर परिंदो और बदहवास गिलहरियों की चिचियाहट
पर कान बंद कर लेने की

कैसा समय है
कि वह एक मुस्कान के आने पर
घिर जाता है अपराधबोध में
मान क्यों नहीं लेता
कि अच्छे दिन बस आने ही वाले हैं...

अच्छे दिन आने वाले हैं / पवन करण

गुजरात की तर्ज पर सबको सबक सिखाने की
इच्छा रखने और पूरे देश को गुजरात बनाने का
सपना देखने वालों के अच्छे दिन आने वाले हैं

पाँच हज़ार साल पहले से चलकर
बरास्ते उन्नीस सौ बानवे, दो हज़ार बारह तक
आने वालों के अच्छे दिन आने वाले हैं

सिर पर मैला ढोने को आध्यात्मिक अनुभव कहने
और प्रजातन्त्र में राजपुरूष की तरह ख़ुद को
ईश्वर का दूत बताने वालों के अच्छे दिन आने वाले हैं

सत्रह बार सोमनाथ को लुटते देखने और एक बार भी
लूटने वालों से न भिड़ने मगर अब बदले पर उतारू
दिखने वालों के अच्छे दिन आने वाले हैं

उनके अच्छे दिन आने वाले हैं
हम उनके अच्छे दिन लाने वाले हैं ।

अछूत / प्रेमशंकर

अछूत
एक बिफरा हुआ घोड़ा है
जिसे तुम
अपने स्वार्थ के लिए
सुविधाओं की लगाम
प्रताड़ना की सैंटी
और
सुविधाओं के चारे से
सदैव साधते रहे हो!

अट नहीं रही है / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

अट नहीं रही है
आभा फागुन की तन
सट नहीं रही है।

कहीं साँस लेते हो,
घर-घर भर देते हो,
उड़ने को नभ में तुम
पर-पर कर देते हो,
आँख हटाता हूँ तो
हट नहीं रही है।

पत्‍तों से लदी डाल
कहीं हरी, कहीं लाल,
कहीं पड़ी है उर में,
मंद - गंध-पुष्‍प माल,
पाट-पाट शोभा-श्री
पट नहीं रही है।

अच्छे भाग वाला मैं / सुरेश सेन नि‍शांत

अच्छे भाग वाला हूँ मैं
इतना बारूद फटने के बाद भी
खिल रहे हैं फूल
चहचहा रही हैं चिड़ियाँ
बचा है धरती पर हरापन
सौंधी ख़ुशबू

अभी भी नुक्कड़ों पे
खेले जा रहे हैं ऐसे नाटक
कि उड़ जाती है तानाशाह की नींद

बचा है हौंसला
आतताइयों से लड़ने का
इतने खौफ़ के बावजूद भी
गूँगे नहीं हुए हैं लोग

बहुत भागवाला हूँ मैं
बाज़ारवाद के इस शोर में भी
कम नहीं हुआ है भरोसा दोस्त
कवियों का
जीवन पर से

अभी भी
उन लोगों के पास
दूजों का दुख सुनने के लिए
है ढेर सारा वक़्त

अभी भी है
उनके दिल की झोली में
सान्त्वना के मीठे बोल
द्रवित होने के लिए
बचे हैं आँसू
कुंद नहीं हुई है
इस जीवन की धार
बहुत ख़ुशक़िस्मत हूँ मैं
हवा नहीं बँधी है
किसी जाति से
और पानी धर्म से
चिड़िया अभी भी
हिन्दुओं के आँगन से उड़ कर
बैठ जाती है मुसलमानों की अटारी पे

उसकी चहचहाहट में
उसकी ख़ुशियों-भरी भाषा में
कहीं कोई फ़र्क नहीं

अच्छे भागवाला हूँ मैं
अभी भी लिखी जा रही है
अन्धेरे के विरुद्ध कविताएँ
अभी भी
मेरे पड़ोसी देश में
अफ़जल अहमद जैसे रहते हैं कई कवि