Tuesday, 7 March 2017

अच्छी किताब / देवमणि पांडेय

एक अच्छी किताब अन्धेरी रात में
नदी के उस पार किसी दहलीज़ पर
टिमटिमाते दीपक की ज्योति है
दिल के उदास काग़ज़ पर
भावनाओं का झिलमिलाता मोती है
जहाँ लफ़्ज़ों में चाहत के सुर बजते है

ये वो साज़ है
इसे तनहाइयों में पढ़ो
ये खामोशी की आवाज़ है
एक बेहतर किताब हमारे जज़्बात में

उम्मीद की तरह घुलकर
कभी हँसाती, कभी रुलाती है
रिश्तों के मेलों में बरसों पहले बिछड़े
मासूम बचपन से मिलाती है
एक संजीदा किताब
हमारे सब्र को आज़माती है

किताब को ग़ौर से पढ़ो
इसके हर पन्ने पर
ज़िन्दगी मुस्कराती है

अच्छी खबर / दिनेश कुमार शुक्ल

कभी-कभी अच्छी ख़बरें भी आ जाती हैं
जैसे अब भी
कभी-कभी तुम आ जाती हो
अपनी छत पर

गली गैर की दूर मुहल्ला
नहीं पतंगों का ये मौसम
अपने संग पढ़ने वाले अब
हिन्दू हैं या मुसलमान हैं

लेकिन इतना तो है अब भी
कभी-कभी तुम आ जाती हो
अपनी छत पर

अच्छी कविताओं का हश्र / मनोज श्रीवास्तव

अच्छी कविताओं का हश्र



वह अच्छी कवितायेँ लिखता था
क्योंकि
वह सार्वजनिक स्थानों पर
कास्मेटिक वस्तुओं की
विज्ञापन करने वाली
माडल युवतियों से
घिरा रहता था.

अच्छी कविता की ज़रूरत / नील कमल

काँपते से हाथ, शंकित हैं
मासूम खिलखिलाहटों के भविष्य के प्रश्न पर
सफ़ेद होते बाल व्यथित हैं
अपनी नस्लों की सुरक्षा के सवाल पर
और पूरी दुनिया चिंतित है
मानवता के सरोकारों से

लिखते हैं गुलाबी ख़त पर
लाल चूड़ियों वाले खनखनाते हाथ
दुनिया को दुनिया बनाए रखने के लिए
एक अच्छी कविता की ज़रूरत है

वह जोड़ सकती थी मेरे-तुम्हारे अतीत
बन सकती थी सागर-सेतु
वह ढ़ाई आखर के तिलिस्म में
कहीं गुम-सी है, ढूँढ़ती साँसों का बसंत
सहेजती रिश्तों का शरद-काल

वह प्राणों के तार पर फेरती है अँगुलियाँ
फूटता है राग, प्यार को प्यार बनाए रखने के लिए
एक अच्छी कविता की ज़रूरत है

एकात्म होने लगते हैं स्मृति के अक्षर,
माथे की सिलवटों के साथ

कह जाती है, प्रेरणा उत्तप्त कानों में
जीवन को जीवन बनाए रखने के लिए
एक अच्छी कविता की ज़रूरत है ।

अच्छी कविता की गुंजाइश / प्रियदर्शन

कविगण,
सही है कि यह वक़्त आपका नहीं,
लेकिन इतना बुरा भी नहीं
जिसे आप इस क़दर संदेह और नफ़रत से देखें
इस वक़्त बहुत सारे नामालूम से प्रतिरोध गुत्थम-गुत्था हैं
सदियों से चले आ रहे जाने-पहचाने अन्यायों से
यह वक़्त हैवानियत को कहीं ज़्यादा साफ़ ढंग से पहचानता है
यह अलग बात है कि हाथ मिलाने को मजबूर है उससे
सही है कि देह अब भी सह रही है चाबुक का प्रहार
लेकिन पीठ पर नहीं चेहरे पर
यह ज़्यादा क्रूर दृश्य है
लेकिन ये भी क्या कम है कि दोनों अब आमने-सामने हैं
एक-दूसरे से मिला रहे हैं आंख
सही है कि वक़्त ने निकाली हैं कई नई युक्तियां
और शासकों ने पहन ली हैं नई पोशाकें
जो बाज़ार सिल रहा है नई-नई
उन्हें लुभावने ढंग से पेश करने के लिए

फिर भी कई कोने हैं
कई सभाएं
कई थकी हुई आवाज़ें
कई थमे हुए भरोसे
कई न ख़त्म होने वाली लड़ाइयां
जिनमें बची हुई है एक अच्छी कविता की गुंजाइश

अजीव का पहरा / पारुल पुखराज

एक चित्त के उजाले पर
गिर रहा
उजाला दूजे चित्त का

एक लोक पर
छाया
दूजे लोक की

नींद पर जीव की, अजीव का पहरा

उच्चारता अजानी दिशा में
नाम मेरा
मेरे पूर्वजों का

न जाने
कौन

चेतना
बंधी गाय
रंभा रही

अतीत / समझदार किसिम के लोग / लालित्य ललित

तुम
पहले-से नहीं रहे
वक्त ने बदल दी
तुम्हारी परिभाषा
तुम्हारा भूगोल
और
मैंने अब इतिहास पढ़ना
छोड़ दिया
वर्तमान में हूँ
तो दुहराव क्यों
मैं
खुद
इतिहास हो रही हूँ
कुतुब मीनार ने
खड़े-खड़े
यूं ही
अपने आपसे
सवाल किया