Tuesday, 7 March 2017

अजनबी शहर से दोस्ती / ब्रजेश कृष्ण

अजनबी शहर से दोस्ती कोई मामूली बात नहीं
अजनबी शहर की किसी गली से गुज़रना भी
कोई मामूली बात नहीं

मगर मैं गुज़रा हर गली से अजनबी शहर की
अपनी पतलून के पाँयचे बगै़र ऊपर उठाये
मैंने गलियों से उनके नाम पूछे:
चक्रवर्ती मुहल्ला/धोबी मुहल्ला
या पत्थरों वाली गली
और हैरत से पाया कि यही
बिल्कुल यही नाम थे
मेरे शहर के मुहल्लों और गलियों के
बच्चे उतने ही भोले
और स्त्रियाँ ठीक वैसी ही हँसती थीं क़रीने से
जैसे मेरे शहर की

(भद्रजन क्षमा करें)

मैं शहर के नये बसे इलाके़ से जानकर बचा
क्योंकि मैं जानता था
कि यह हिस्सा
वाक़ई अजनबी होता है
अपने ही शहर से

फिर तो मैं घुस जाता था किसी भी गली में
निकल पड़ता था किसी भी गली से
किसी भी प्रहर में

लुकाछिपी का यह खेल
मैंने बहुत खेला अजनबी शहर में
ठीक वैसे ही जैसे
खेलता था अपने शहर में
मेरे सुख/मेरे दुख
मुझसे निकलते
और बस जाते इन गलियों में
अजनबी शहर की
जो क़तई अजनबी नहीं था

मैंने शुरू में ग़लत कहा था
अजनबी शहर से दोस्ती
मामूली बात है
अगर आप चल सकें
अपनी पतलून के पाँयचे बगै़र ऊपर उठाये।

अजनबी मनुष्य / अमरजीत कौंके

क्यों मेरे लिये
वे लोग ही अजनबी बन गए
मैं जिनकी साँसों में जीता था
जो मेरी
साँसों में बसते थे

यह हादसा कैसे हुआ
कि मैं उनसे आँखें चुराने लगा
मैं उनकी मुसीबतें भुलाने लगा
जिन्हें कितनी बार
मैंने उनके साथ
अपने जिस्म पर झेला
वह तल्ख़ दर्द
कितने हमारे आँसू साँझे
हमने एक दूसरे के पोरों से पोंछे
एक दूसरे की राहों के काँटे
कितनी बार हमने
अपनी पलकों से समेटे

पता नहीं
वक़्त अचानक
क्या हादसा कर गया
कि मेरे भीतर
जो इन सब का अपना था
वह कैसे अचानक
धीरे-धीरे मर गया

उसके स्थान पर
मेरे भीतर
यह अजनबी-सा मनुष्य
कौन
प्रवेश कर गया

कि मेरे लिए
वे लोग ही अजनबी बन गए
मैं जिनकी साँसों में बसता था
जो मेरी साँसों में जीते थे ।


मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा

अजनबी बनता पहचान / मोहन राणा

देखें तो कौन रहता है इस घर में
किसी आश्चर्य की आशा
धीरज से हाथ बाँधे खड़ा
मैं देता दस्तक दरवाज़े पर
सोचता-कितना पुराना है यह दरवाज़ा
सुनता झाडि़यों में उलझती हवा को
ट्रैफिक के अनुनाद को
सुनता अपनी सांस को बढ़ती एक धड़कन को
पायदान पर जूते पौंछता
दरवाज़े पे लगाता कान
कि लगा कोई निकट आया भीतर दरवाज़े के
बंद करता आँखें
देखता किसी हाथ को रुकते एक पल सिटकनी को छूते
निश्वास जैसे अनंत सिमटता वहीं पर,

भीतर भी
बाहर भी
मैं ही जैसे घर का दरवाज़ा
अजनबी बनता
पहचान बनाता

रचनाकाल: 28.2.2006

अजनबी आवाज़ें / सुभाष राय

शहर में घुस आए हैं
कुछ अजनबी लोग

हलचल है चौराहों पर
कानाफूसी चल रही है
दुकानों पर, दालानों में
चौपालों पर, जगह-जगह

घरों की खिड़कियाँ
दिन में भी बंद
रहती हैं आजकल
दरवाज़ों पर
ताले लटक जाते हैं
या भीतर से साँकल
चढ़ी होती है
बिजली कि घंटियों के तार
खोल देते हैं लोग
ताकि आने वाला आवाज़ दे
पहचाना जा सके
अजनबी आवाज़ों पर नहीं
खुलते हैं दरवाज़े

पार्कों में सन्नाटा है
बच्चे भी नहीं आते
अब वहाँ खेलने
पेड़ अकेले पड़ गए हैं
दिन भर ठकुआए
खड़े रहते हैं
शाम को भी अब
उनकी जड़ों के पास
चौपाल नहीं जमती

लोगो ने फूलों को
पानी देना बंद कर दिया है
उनमें कलियाँ आती हैं
पर खिल नहीं पातीं
न जाने कब, कौन
आकर उन्हें मसल जाता है
तितलियाँ दिखती ही नहीं
उनके टूटे हुए पंख
उड़ते रहते हैं इधर-उधर
डालियों पर लटके
शहद के खतोने
सूख गए हैं
जा चुकीं हैं
मक्खियाँ कहीं और

नदी के पानी में
अजीब सी थरथराहट है
वह परेशान है
अब उसके किनारे नहीं आती
झुंड की झुंड गायें
अपनी प्यास बुझाने
धूप से व्याकुल
चरवाहे नहीं आते
तट पर पानी पीने

कोई रोज़ आधी रात बाद
चुपके से आता है और
लाठियाँ पीटता है पानी पर
छुरे पर धार लगाता है
तलवारें तेज़ करता है
पास पड़ीं खोपड़ियाँ
टकराता, बजाता है

बच्चे छुट्टियाँ नहीं मना पाते
डरे हुए माँ-बाप की
सलाहें बंद कमरों में
कैद कर देती हैं उन्हें अकेले
स्कूल भी जाते हैं डरे-सहमे
जेल जैसा लगता है स्कूल
मध्यांतर में भी
बाहर नहीं निकलते
तरसते हैं आइस्क्रीम के लिए

सुबह-सुबह लोग
टूट पड़ते हैं अख़बारों पर
जानना चाहते हैं
क्या हुआ रात में
कोई घर तो नहीं लुटा
कोई हत्यारों के हाथ
मारा तो नहीं गया
कोई बच्चा तो नहीं
ग़ायब हुआ

अफ़वाहें उड़ती हैं
गर्म आँधियों की तरह
जो नहीं हुआ होता
वह भी सरसराता रहता है
कानाफूसियो में
विश्वास नहीं होता
मगर अविश्वास भी कैसे हो

गला कटा धड़ मिला है
रामगंज की पुलिया पर
दाँतों के निशान हैं
युवती के जिस्म पर
मोतीपुर के कुछ मकानों पर
लाल हथेलियों की
छाप देखी गई
बिल्कुल वैसी ही जैसी
लुटने के कुछ ही दिन पहले
सदर के कुछ घरों पर
देखी गई थी
मज़ार के पास
दो अलग-अलग
हाथों के कटे पंजे मिले हैं
एक पर राम गुदा हुआ है
दूसरे पर रहीम

लोग बेहद डरे हुए हैं
किचेन में काम करती
औरत को दिखती हैं
छायाएँ बाहर टहलती हुई
रात को छत पर
किसी के चलने की
ठक-ठक सुनाई पड़ती है
बाहर सड़क पर
कभी-कभी बहुत तेज़
भूँकते हैं कुत्ते
हवा से खड़कती हैं कुंडियाँ
अधजगी आँखें फैल जाती हैं
एक पल के लिए
इग्जास्ट फैन के पीछे
अपने घोंसले में
सोया कबूतर
फड़फड़ाता है पंख
और डरा देता है
लरजती शाम
काँपती सुबह
झनझनाती रात
इसी तरह दिन गुज़र रहा है
आदमी डर रहा है
मर रहा है

अचानक हुआ भाग्योदय / नागार्जुन

कल या कि परसों
हुआ एकाएक भाग्योदय
पकड़ लिया मल्का-ए-तरन्नुम
नूरजहाँ को
रेडियो पाकिस्तान से प्रसारित प्रोग्राम में
सुनाई पड़ी उस सुकण्ठी की स्वर लहरी
‘कजरारी अँखियों में निदिया न आए
जिया घबराए
पिया नहिं आए
कजरारी अँखियाँ में ......’

सारा दिन सारी रात
गूँजती रहीं
मेरे कर्ण-कुहरों में
गीत की कड़ियाँ

हुआ अचानक भाग्योदय
कई वर्षों बाद
कल या कि परसों !

अचानक मुलाक़ात / विस्साव शिम्बोर्स्का

कितने सभ्य तरीक़े से हम एक दूसरे से पेश आ रहे हैं;
कह रहे हैं, कैसा अद्भुत है इतने बरस के बाद अचानक यों मिलना।

हमारे बाघ अब सिर्फ़ दूध पीते हैं।
हमारे बाज़ ज़मीन पर टहलते हैं।
हमारी शार्क मछलियाँ पानी में डूब जाती हैं।
हमारे भेड़िए अब खुले जंगले के बाहर उबासी लेते हैं।

हमारे साँपों में अब वो बिजलियाँ नहीं रहीं,
हमारे बन्दर अपनी कल्पनाशीलता खो चुके हैं,
हमारे मयूरों के पंख झड़ चुके हैं।
हमारे बालों से चमगादड़ कभी के उड़ गए।

हम बीच वाक्य में चुप हो जाते हैं,
लाइलाज, मुस्कुराते हुए।
हमारे मनुष्यों के पास
कहने के लिए कुछ नहीं है।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : असद ज़ैदी

अचानक देवत्व / सुधीर सक्सेना

अचानक
उसने कहा
उफ्फ, इत्ती गर्मी
कुछ करें
कि बारिश हो
अचानक
मैंने मन ही मन टेरा मेघों को
बुदबुदाये मेघों की स्तुति में मंत्र

आकाश से अचानक बरसा पानी
आकाश से बरसा अचानक झमाझम नेह
उसकी दृष्टि में
अचानक यूँ
मैं अपने क़द से बड़ा हुआ

प्रकृति की औचक लीला से
अचानक एक लौकिक पुरूष ने पाया देवत्व