Tuesday, 7 March 2017

अनसुने अध्यक्ष हम / किशन सरोज

बाँह फैलाए खड़े,
निरुपाय, तट के वृक्ष हम
ओ नदी! दो चार पल, ठहरो हमारे पास भी ।

चाँद को छाती लगा
फिर सो गया नीलाभ जल
जागता मन के अंधेरों में
घिरा निर्जन महल

और इस निर्जन महल के
एक सूने कक्ष हम
ओ भटकते जुगनुओ ! उतरो हमारे पास भी ।

मोह में आकाश के
हम जुड़ न पाए नीड़ से
ले न पाए हम प्रशंसा-पत्र
कोई भीड़ से

अश्रु की उजड़ी सभा के,
अनसुने अध्यक्ष हम
ओ कमल की पंखुरी! बिखरो हमारे पास भी ।

लेखनी को हम बनाए
गीतवंती बाँसुरी
ढूंढते परमाणुओं की
धुंध में अलकापुरी

अग्नि-घाटी में भटकते,
एक शापित यक्ष हम
ओ जलदकेशी प्रिये! सँवरो हमारे पास भी ।

अधूरी कविता / अर्पण कुमार

लिखी गई कविता
हो जाती है बेमानी अक्सरहाँ
कई बार लिखे जाने के चंद
क्षणों बाद ही
रह जाते हैं भाव अधूरे
समय के झोंके में हिलते-डुलते
साया-मात्र भर

अंदर बैठा गवाह
बगैर स्खलित हुए
कुछ-न-कुछ
रख नहीं पाता कदाचित
अपनी बात
एक बार भी ।

अधूरी कविता / वर्तिका नन्दा

थके पांवों में भी होती है ताकत
देवदारों में चलते हुए
ये पांव
झाड़ियों के बीच में से राह बना लेते हैं
गर
भरोसा हो
सुबह के होने का
सांसों में हो कोई स्मृति चिह्न
मन में संस्कार
और उम्मीदों की चिड़िया
जिंदा है अगर
तो जहाज के पंछी को
खूंटे में कौन टांग सकता है भला?

अधूरी कविता / संजय कुंदन

एक अधूरी कविता मिटाई न जा सकी
वह चलती रही मेरे साथ-साथ
मैंने एक आवेदन लिखना चाहा
वह आ खड़ी हुई और बोली- बना लो मुझे एक प्रार्थना
एक दिन सबके सामने उसने कहा- मुझे प्रेमपत्र बना कर देखो
मैं झेंप गया

कई बार धमकाया उसे
कि वह न पड़े मेरे मामले में
और हो सके तो मुझे छोड़ दे

एक दिन गर्मागर्म बहस में
जब मेरे तर्क गिर रहे थे जमीन पर
वह उतर आई मेरे पक्ष में
पलट गई बाजी
बगलें झाँकने लगे मेरे विरोधी
जो इस समय के दिग्गज वक्ता थे।

अधूरी कविताओं में कवि / मुकेश मानस

कवि लिखता है बहुत सी कवितायें
उनमें से बहुत ही कम
हो पातीं हैं पूरी
ज़्यादातर रह जातीं हैं
आधी और अधूरी

अधूरी कविताओं में होता है कवि
सोचता-विचारता हुआ
परास्त होता हुआ कभी
तो कभी जूझता हुआ
कभी ख़ुद से
और कभी अपने समय से

अधूरी कविताओं में होता है कवि
साँस भरता हुआ
और अधूरी कविताओं में होती हैं
कवि की अपार सम्भावनाएँ

रचनाकाल : 2002

अदालत में औरत / कुमार सुरेश

सर्दियों की उदास शाम
काला कोट पहनना ही चाहती है
शाम के रंग में घुली-मिली औरत
सोचती है उसे अब
वापस लौट ही जाना चाहिए

उसके साथ घिसटती
पांच-छः बरस की बच्ची की
खरगोश जैसी आँखों में थिर
उदासी की परछाईयों के बीच
भूख ने डेरा जमा लिया है
वह चकित उस ग्रह को
जानने की कोशिश कर रही है
जहाँ भुगतना है उसे जीवन

औरत आखिरी बार बुदबुदाती है
क्या अब वह जाए ?
गांवनुमा कस्बे के कोर्ट का बाबू
उदासीन आँखों से
औरत को देखकर भी नहीं देखते हुए कहता है
कह तो दिया
जब खबर आएगी बता देंगे

कचहरी के परिसर में लगे
हरसिंगार के पेड़ों की छायाएं
लम्बी हो गयी हैं
इनपर संभलकर पैर रखते हुए
वह एक तरफ को चल देती हैं

कोर्ट के सामने
अब लगभग सुनसान सड़क के दूसरी ओर
झोपड़ीनुमा दुकान पर बैठा चायवाला
दुकान बढ़ने की सोच रहा है
औरत कुछ सोचती-सी वहां पहुंची
चाय लेकर सुड़कने लगी
बच्ची दुकान पर रखे
बिस्किट के लगभग खाली मर्तबानों को
ललचाई नज़रों से देख रही है
चायवाले ने पूछा
कुछ पता लगा ?
औरत ने उदासीन भाव से
नकारात्मक सर हिलाया

चायवाला मुझे शहरी ओर अजनबी
समझकर बताने लगा
इसके आदमी को चोरी के इल्जाम
में पकड़ा था
जमानतदार न होने से
कई महीनों से जेल में बंद है
रोज उसके छूटने की खबर
पूछने आती है

संवाद के दौरान
औरत चुपचाप खड़ी रही
उसने यह भी नहीं देखा
चायवाला किससे कह रहा है
चाय पीकर धोती की कोर से
पैसे निकाल चायवाले को दिए
थके क़दमों से एक ओर चल दी
बच्ची रोटी हुई पीछे भागी

साफ़ था औरत को मुझमें कोई
दिलचस्पी नहीं है
मैं भी अपनी किसी परेशानी के चलते
यहाँ आया हूँ
मुझे भी उसकी परेशानी में नहीं
उसके जवान औरत होने में ही
कुछ दिलचस्पी है

उसके जाने के बाद
उसे ख्यालों से झटकने के लिए
मैंने सर हिलाया
अदालत की पुरानी मोरचा खाई इमारत
अँधेरे की चादर ओढ़कर
लगभग
अदृश्य हो चुकी थी ।

अथ से इति तक / विद्याभूषण

भाई तुलसीदास !
हर युग की होती है अपनी व्‍याधि-व्‍यथा ।
कहो, कहाँ से शुरू करूँ आज की कथा ?
मौजूदा प्रसंग लंका-कांड में अटक रहा है ।
लक्ष्‍मण की मूर्च्‍छा टूट नहीं रही,
राम का पता नहीं,
युद्ध घमासान है,
मगर यहाँ जो भी प्रबुद्ध या महान है,
तटस्‍थ है,
चतुर सुजान है ।

ज़हर के समन्‍दर में
हरि‍याली के बचे-खुचे द्वीपों पर
प्रदूषण की बरसात हो रही है ।
आग का दरि‍या
कबाड़ के पहाड़ के नीचे
सदि‍यों से गर्म हो रहा है ।

भाई तुलसीदास !
आज पढ़ना एक शगल है,
लि‍खना कारोबार है,
अचरज की बात यह है
कि‍ ‍जि‍सके लि‍ए क़ि‍ताबें ज़रूरी हैं,
उसे पढ़ना नहीं सि‍खाया गया,
और जि‍न्‍हें पढ़ना आता है,
उन्‍हें ज़ुल्म से लड़ना नहीं आता।
इसलि‍ए भाषण एक कला है,
और जीवन एक शैली है ।
जो भी यहां ग्रह-रत्‍नों के पारखी हैं,
वे सब चाँदी के चक्‍के के सारथी हैं ।

वाकई लाचारी है
कि‍ प्रजा को चुनने के लि‍ए हासि‍ल हैं
जो मताधि‍कार,
सुस्‍थापि‍त है उन पर
राजपुरूषों का एकाधि‍कार ।
मतपेटि‍यों में
वि‍कल्‍प के दरीचे जहाँ खुलते हैं,
वहाँ से राजपथ साफ़ नज़र आता है,

और मुझे वह बस्‍ती याद आने लगती है
जो कभी वहाँ हुआ करती थी-
चूँकि आबादी का वह काफ़ि‍ला
अपनी मुश्‍कि‍लों का गट्ठर ढोता हुआ
चला गया है यहाँ से परदेस -
सायरन की आवाज़ पर
ईंट-भट्ठों की ‍चि‍म‍नि‍याँ सुलगाने,
खेतों-बागानों में दि‍हाड़ी कमाने
या घरों-होटलों में खट कर रोटी जुटाने ।

भाई तुलसीदास !
जब तक राजमहलों के बाहर दास-बस्तियों में
रोशनी की भारी कि‍ल्‍लत है,
और श्रेष्‍ठि‍-जनों की अट्टालि‍काओं के चारों ओर
चकाचौंध का मेला है,
जब तक बाली-सुग्रीव के वंशजों को
बंधुआ मज़दूर बनाए रखता है,
वि‍भीषण सही पार्टी की तलाश में
बार-बार करवटें बदल रहा है,
और लंका के प्रहरी अपनी धुन में हैं,
तब तक दीन-दु‍खि‍यों का अरण्‍य-रोदन
सुनने की फुर्सत कि‍सी के पास नहीं ।

कलि‍युग की रामायण में
उत्‍तरकाण्‍ड लि‍खे जाने का इन्‍तज़ार
कर रहे हैं लोग,
सम्‍प्रति‍, राम नाम सत्‍य है,
यह मैं कैसे कहूँ !
मगर एक सच और है भाई तुलसीदास!
ज़ि‍न्‍दगी रामायण नहीं, महाभारत है।
कौरव जब सुई बराबर जगह देने को
राजी न हों
तो युद्ध के सि‍वा और क्‍या रास्‍ता
रह जाता है ?

प्रजा जब रोटी माँगती हो
और सम्राट लुई केक खाने की तज्वीज़
पेश करे
तो इति‍हास का पहि‍या कि‍धर जाएगा ?
डंका पीटा जा रहा है,
भीड़ जुटती जा रही है,
चि‍नगारि‍याँ चुनी जा रही हैं,
पोस्‍टर लि‍खे जा रहे हैं,
और तूति‍याँ नक्‍कारखाने पर
हमले की हि‍म्‍मत जुटा रही हैं ।